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शिक्षा से पहले सभ्यता Civility Before Education

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शिक्षित होने से पहले सभ्य होना आवश्यक है (एक दृष्टिकोण)       आज का युग ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और प्रगति का युग कहा जाता है। हर ओर डिग्रियों की दौड़ है, बच्चों से लेकर युवाओं तक हर कोई केवल इस प्रतिस्पर्धा में उलझा हुआ है कि कौन अधिक अंक लाता है, किसे बेहतर संस्थान से डिग्री मिलती है, कौन ऊँचे वेतन वाली नौकरी पाता है।       लेकिन इस आपाधापी में एक महत्वपूर्ण प्रश्न पीछे छूट जाता है कि क्या केवल शिक्षित होना ही पर्याप्त है, या सभ्य होना, उससे कहीं अधिक अनिवार्य है ? शिक्षा और सभ्यता में अंतर की सूक्ष्म रेखा      शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन नहीं है। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, इंसान को इंसान बनाना, उसके भीतर नैतिकता, संवेदनशीलता और मानवता का बीजारोपण करना। लेकिन दुर्भाग्य से आज शिक्षा की परिभाषा केवल अंकतालिका, परीक्षा परिणाम और कैरियर की ऊँचाइयों तक सिमट कर रह गई है।       जबकि सभ्यता वह गुण है जो शिक्षा से परे जाकर हमें जीवन जीने का तरीका सिखाती है। सभ्य होने का मतलब है, दूसरों के विचारों का सम्मान करना, अपनी ...

जो दिखता है वही बिकता है , लेकिन टिकने के लिए क्या चाहिए..? | What You Show is What Sells , But How to Sustain It..?

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जो  दिखता है, वही बिकता है, पर क्या इतना ही काफी है. ..?       बचपन से ही हम सुनते आए हैं , “ जो दिखता है, वही बिकता है।” यह कथन आज के समय में एकदम सटीक बैठता है । सोशल मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और बाज़ारवाद के इस युग में यदि आप स्वयं को प्रदर्शित नहीं करते, तो मानो आप अस्तित्व में ही नहीं हैं। लेकिन यहाँ एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या केवल दिखने भर से ही कोई व्यक्ति, वस्तु या विचार दीर्घकालिक स्तर पर स्थापित हो पाएगा ?      तो आईए एक सिद्धांत पर विचार करें... दिखना ज़रूरी है, क्योंकि यही पहचान है       ये कदाचित सच है कि आज के दौर में यदि कोई व्यक्ति अंतर्मुखी रहकर, केवल अपनी विशेषताओं के साथ, भीतर की गहराइयों में खोया रहता है, तो उसकी प्रतिभा दूसरों तक नहीं पहुँच पाती। वह चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, अगर वह सामने नहीं आएगा, तो दुनिया उसे पहचान ही नहीं पाएगी। यही कारण है कि आज हर किसी के लिए अपना एक उचित मंच या प्लेटफॉर्म बनाना अनिवार्य हो गया है, चाहे वह कोई वस्तु हो,लेखन हो, कला हो, संगीत हो या कोई दर्शन। आज अपने आप को ...

"विकल्पों की भीड़ में खोती है सफलता: एकाग्रता ही है असली शक्ति"

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" जहाँ विकल्पों की भीड़ है, वहाँ भ्रम है। जहाँ एक ही राह है, वहाँ संकल्प है। और संकल्प ही सफलता की सीढ़ी है।"       आज के समय में जब हर दिशा में विकल्पों की भरमार कैरियर, रिश्ते, विचारधारा और जीवनशैली आदि, तब यह कहना कि “ विकल्प सफलता में बाधा बनते हैं” एक साहसिक विचार लगता है। परंतु यदि हम गहराई से देखें, तो पाएंगे कि विकल्पों की अधिकता, अक्सर निर्णयहीनता, अस्थिरता और भ्रम को जन्म देती है। और यही वह बिंदु है जहाँ हमारी सच्ची सफलता की राह अक्सर धुंधली हो जाती है। विकल्प: वरदान या भ्रम का जाल ?       विकल्प होना एक स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन जब विकल्प इतने अधिक हो जाएं कि व्यक्ति अपने लक्ष्य से भटक जाए, तो यही स्वतंत्रता एक बोझ बन जाती है। जैसे... एक छात्र जो दस कैरियर विकल्पों के बीच उलझा है, वह शायद किसी एक में उत्कृष्टता नहीं पा सकेगा।   एक लेखक जो हर शैली में लिखना चाहता है, वह शायद किसी एक शैली में गहराई नहीं ला पाएगा।   अतः विकल्पों की अधिकता हमें सतही बनाती है, गहराई नहीं देती। सीमित विकल्पों में छिपी होती है संकल...

वैश्विक उथल-पुथल के दौर में परिवारों में सामंजस्य की कशमकश... मानसिक स्वास्थ्य, पीढ़ी अंतराल और समाधान

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वैश्विक उथल-पुथल के दौर में पारिवारिक रिश्तों का ताना-बाना साधने की कशमकश         आज का युग वैश्विक अस्थिरता (Global Instability) और सामाजिक तनाव (Social Stress) का है। एक ओर महामारी, युद्ध और आर्थिक असमानता ने मानवता को झकझोरा है, तो वहीं दूसरी ओर परिवार, जो समाज की सबसे मूलभूत इकाई होती है, उसकी आंतरिक एकजुटता (Internal Cohesion) टूटने लगी है।       बच्चों से लेकर युवाओं और बुजुर्गों तक हर वर्ग आज एक अजीब सी कशमकश से गुजर रहा है। जहाँ पहले परिवार को “सुरक्षित आश्रय” माना जाता था, आज वहीं, अब वही स्थान तनाव, अविश्वास और मतभेद का प्रतीक बन रहा है।       इस लेख में हम देखेंगे कि कैसे वैश्विक उथल-पुथल का असर सीधे पारिवारिक जीवन पर पड़ रहा है, साथ ही उन रास्तों को तलाशने की कोशिश करेंगे, जिनसे परिवार और समाज एक बार फिर से सामंजस्य (Harmony) और तालमेल (Coordination) की नई दिशा में, एक नए रास्ते पर बढ़ सकें।   वैश्विक संकट और परिवारों पर पड़ने वाला असर मानसिक स्वास्थ्य पर COVID-19 महामारी ने सबसे पहले परिवारों की जड़ों को हिला दिया...

संघर्ष ही आत्मबल का स्रोत | Struggle is the True Source of Inner Strength

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संघर्ष और आत्मबल (Struggle & Inner Strength)         आज का युवा छोटी-सी असफलता या संघर्ष देखकर हतोत्साहित हो जाता है। इसका कारण है कि उन्हें बचपन से ही कठिन परिस्थितियों से जूझने के अवसर से उनके ही माता पिता ही वंचित कर देते हैं ।        संघर्ष ही आत्मबल का शिक्षक है, कठिनाइयाँ हमें हमारी कमजोरियों और मजबूतियों से परिचित कराती हैं। जब हम उनसे जूझते हैं, तो आत्मविश्वास और धैर्य बढ़ता है। मानव जीवन सरल रास्तों से नहीं, बल्कि संघर्षों से निखरता है। जब इंसान कठिनाइयों से जूझता है तो उसे अपनी वास्तविक क्षमता का पता चलता है। संघर्ष हमें यह सिखाता है कि किस परिस्थिति में धैर्य रखना है, कहाँ साहस दिखाना है और कैसे अपनी कमजोरियों को ताकत में बदलना है।         इसे एक सरल उदाहरण द्वारा आसानी से समझा जा सकता है जैसे आप सबने टीवी पर जंगल के कुछ वीडियो देखे होंगे, जिसमें शेर के बच्चे अपने माता-पिता से कैसे शिक्षा प्राप्त करते हैं वह उदाहरण सबसे समीचीन है। शेर मां-बाप द्वारा बच्चों को कब तक खुद से खाना खिलाना है, बच्चों को कितनी दूर तक खे...

कल की कथा, आज की व्यथा | Yesterday & Today’s Pain

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"हँसी के पीछे छुपी सच्चाई, व्यथा के पीछे छुपा व्यंग्य।"           जीवन की राहों पर हम सभी कभी न कभी ठोकर खाते हैं, कहीं न कहीं "पिटते" हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक, घर से लेकर गली-मोहल्ले तक, मंदिर-मस्जिद से लेकर सरकारी दफ्तर तक, हर जगह किसी न किसी रूप में इंसान ठोकर खाता ही रहता है। कभी समाज से, कभी परिवार से, कभी व्यवस्था से और कभी रिश्तों से।          यह कविता "कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं…" केवल हास्य नहीं है, बल्कि एक गहरा व्यंग्य है उस जिंदगी पर, जहाँ आम आदमी की पीड़ा हर युग में एक-सी बनी रही है। यह व्यथा हँसते-हँसते सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर इंसान कब तक इस "पिटाई" को सहता रहेगा और कब उसकी आवाज़ सुनी जाएगी।  रचना आपको हँसी भी दिलाएगी, सोचने पर भी विवश करेगी और जीवन की कटु सच्चाइयों से भी रूबरू कराएगी। आइए पढ़ते हैं यह व्यंग्यात्मक काव्य.... कल की कथा,और आज की व्यथा... जब हम बचपन में छोटे थे, बिन बात के पिटते थे स्कूल कॉलेज में पढ़ते थे,फिर भी हम पिटते थे कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं.. बातों पर तो पिटते ह...

" क्षमा ", रिश्तों और समाज का सबसे बड़ा साहस

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"क्षमा", मानवीय समाज का एक अनिवार्य तत्व        क्या आपने कभी सोचा है कि जब हम अपनी ढेरों गलतियों को नज़रअंदाज़ कर स्वयं को माफ़ कर देते हैं, तो दूसरों को माफ़ करना इतना कठिन क्यों लगता है...?       वजह, आज का समाज आत्ममंथन से दूर होता जा रहा है। हम अपनी कमियों को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं और उन्हें “इंसानी फितरत” कहकर तर्कों की परत चढ़ा देते हैं। और खुद से प्रेम करते रहते हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो।       लेकिन जैसे ही सामने वाला कोई गलती करता है तो हमारे भीतर कठोरता जन्म लेती है और हम उसके नाम पर नफ़रत के पत्थर गढ़ने लगते हैं।       हम खुद को तो माफ़ कर देते हैं, पर किसी और को वही एक मौका क्यों नहीं देते ? यही दोहरापन न केवल रिश्तों को खोखला करता है, बल्कि पूरी सामाजिक संरचना को भी कमजोर बना रहा है।       आज के समय में हम दूसरो को उसकी छोटी सी भी गलती में उसको सबसे बुरे इंसान के रूप से याद रखते है और उसे कभी "क्षमा" न करने की धारणा मन में रख लेते हैं और वहीं स्वयं को अपनी बड़ी से बड़ी गलतियों के लिए अपने क...

"पीढ़ियों के लिए सोच से स्वार्थ तक की यात्रा"

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दीर्घकालिक सोच बनाम तात्कालिक स्वार्थ         एक वक़्त था जब हमारे पूर्वज फलदार वृक्ष इस सोच के साथ लगाते थे कि आने वाली पीढ़ियाँ उनका फल खाएँगी। यह केवल एक प्राकृतिक मकार्य नहीं था, बल्कि एक विचारधारा थी, समर्पण, परमार्थ और दीर्घकालिक सोच थी। लेकिन आज हम उस मोड़ पर आ पहुँचे हैं जहाँ यह सोच धुंधली होती जा रही है। वर्तमान परिदृश्य में, "अभी और मेरे लिए "       आज का व्यक्ति, शीघ्र लाभ की तलाश में है। सरल शब्दों में कहा जाए तो वह उसी वृक्ष को लगाना चाहता है, जिसका फल वह स्वयं खा सके। अपने नाती पोतों की तो बात ही छोड़िए, अपने बच्चों के लिए भी नहीं सोचता। उसका ध्यान स्वयं तक सीमित हो गया है, न आने वाली पीढ़ियाँ उसकी दृष्टि में हैं, न ही उनके हित।       बच्चों के भविष्य की चिंता गौण होती जा रही है। समाज में व्यक्तिगत सुख-सुविधा ही प्राथमिकता बन चुकी है और साझा जिम्मेदारियों का स्थान व्यक्तिगत स्वार्थ ले रहा है।        समाज में इसके त्वरित दुष्परिणाम, विभिन्न रूप में देखने को मिल रहे हैं। आपसी संबंधों में दूरी बढ़ रही है, प...

“संस्कार"...सोच और नजरिए की असली जड़”

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"संस्कार"...सोच और रिश्तों की नींव       आज की तेज़ रफ्तार दुनिया में रिश्ते, सोच और नजरिया बड़ी तेज़ी से बदलते हुए नज़र आते हैं। सगे संबंधी के रिश्ते हों या अपने बचपन की दोस्ती हो, कई बार, एक परिपक्व उम्र के पड़ाव पर पहुंच कर उन रिश्तों के बीच आश्चर्यजनक रूप में बहुत चौड़ी दरार देखने को मिलती है।        जो व्यक्ति बचपन में सरल, स्नेही और अपनेपन से भरा लगता था, बड़ा होकर, उसी का व्यवहार कई बार, एकदम "विपरीत रूप" में सामने आता है और हम चकित हो जाते हैं...       यह परिवर्तन केवल उसके बौद्धिक विकास या शिक्षा के कारण नहीं आता, बल्कि उसकी गहराई में कुछ और ही कारण छिपे होते हैं और वह कारण है " संस्कार "।       किसी इंसान के जीवन में शिक्षा से कहीं अधिक गहरा प्रभाव, उसके " संस्कार " पर निर्भर करता है क्योंकि संस्कार ही वह अदृश्य शक्ति है, जो किसी बच्चे के व्यक्तित्व की नींव रखती है। यह न पाठ्य पुस्तकों से मिलता है, न ही किसी पाठशाला से। यह उसके जन्म काल से बनता है, माता-पिता, परिवार, परिवेश और दिन-प्रतिदिन मिलने वाले अनुभव...

स्क्रीन का नशा

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The Screen Addiction  नई सदी का सबसे ख़ामोश, पर सबसे घातक नशा         यूं तो मानव समाज में समय के साथ नशे की पहचान भी बदलती रही है। बीते वर्षों में जहां नशे का अर्थ शराब, सिगरेट या अन्य नशीले पदार्थों तक सीमित था, वहीं आज की 21वीं सदी में एक बेहद शांत पर बेहद घातक नशे ने जन्म लिया है। वह है... स्क्रीन का नशा । चेतावनी         यह नशा न केवल खतरनाक है, बल्कि इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह बिना शोर-शराबे के, चुपचाप हमारी सोच, जीवनशैली और संबंधों को भीतर से खोखला कर रहा है।  हर आयु वर्ग पर असर करता है यह ‘नया नशा ’      नशा चाहे किसी भी प्रकार का हो, वह हर आयु और हर वर्ग को बिना किसी सीमा के अपनी गिरफ्त में ले लेता है। उसी तरह ये स्क्रीन का नशा भी आज पूरी दुनिया में लोगो को बड़ी तेजी से प्रभावित कर रहा है। हालांकि इस नशे के शिकार हर व्यक्ति को अपने पीड़ित होने का एहसास हो जाता है फिर भी वह खुद को रोक नहीं पाता और जाने अनजाने वह अपने ही परिवार में इसका प्रसार करना शुरू कर देता है।            ...

एक गुप्तरोग..., मनोरोग

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जाने अनजाने परिवार और समाज की खामोशी   पूर्व में जब ‘गुप्तरोग’ की बात होती थी तब उसे यौन रोगों से जोड़कर देखा और समझा जाता था। क्योंकि यौन रोगों पर लोग आपस में,घर हो या बाहर, चर्चा नहीं करते थे।        किंतु आज स्थिति बिलकुल विपरीत है। आज समाज में "शिक्षा के प्रसार" से लोग अपने यौन रोगों से संबंधित बीमारियों के प्रति सजग ही नहीं, बल्कि मुखर हो चले हैं और हर तरह की चर्चा में भी खुल कर भाग लेते हैं।         सुखद पहलू यह है कि अब चिकित्सक से सलाह और इलाज कराने में उन्हें कोई अलग सा महसूस नहीं होता है। इसलिए वह अब "गुप्तरोग" के रूप में नहीं, बल्कि "यौन रोग" की परिभाषा में स्पष्ट हो चला है।  "गुप्तरोग" की परिभाषा में "मनोरोग" का कब्जा अब "मनोरोग', एक "गुप्तरोग" क्यों है..?      क्योंकि इस रोग के विषय में जानकारी हो जाने के बाद भी इसे समान्य बीमारी ना मान कर, इस पर चुप्पी साध जाते हैं, छुपाते हैं। इसका स्पष्ट असर नज़र नहीं आता, लेकिन जड़ें पूरी व्यवस्था को खोखला कर देती हैं…एक ऐसी महामारी है जो समाज को भीतर से खोखला कर रही ...

आम आदमी को ईश्वर संदेश Devine Massege to the Common Man

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         प्रार्थना और सपना – एक स्वचिंतन                रात के तीसरे पहर, जब सारा संसार निद्रा में लीन था, एक रहस्यमयी "शीतलता" मुझे जगाने लगी। नींद और जागरण के उस धुंधले क्षण में, एक दिव्य प्रकाश झलका... और उसी में प्रकट हुआ एक स्वप्न... ईश्वर का सन्देश, जो मेरी आत्मा को हमेशा के लिए झकझोर गया। "हे मानव!" एक गूंजती हुई दिव्य वाणी मेरे अंतर्मन में प्रतिध्वनित हुई.... "तू प्रतिदिन मुझसे प्रार्थना करता है,... एक ऐसे तेजस्वी बालक की याचना करता है, जो तेरे देश को गौरव की ऊँचाइयों तक ले जाए। परंतु सुन, हे मानव! मैं तो हर दिन तेरे समाज में एक 'सूर्यपुत्र' भेजता हूँ... ऐसा बालक जो ऊर्जा, संभावनाओं और दिव्य प्रतिभा से ओतप्रोत होता है... किन्तु तेरा समाज उसे बचा नहीं पाता।" मैं स्तब्ध था। वाणी पुनः गूंजी.... "हे मानव! उस बालक के लिए तेरा 'समाज' ही वह प्रथम परीक्षा है, जहाँ वह बालक असफल हो जाता है..." "शैशव काल में उसे भूख और उपेक्षा का स्वाद चखना पड़ता है..." "बाल्यकाल में उसे शिक्षा के स्थान पर अराजकता मिलती है..." ...

माता-पिता: बेटा-बेटी दोनों की जिम्मेदारी, पर सम्मान सहित ....

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"Parents: Responsibility for both son and daughter, but with respect."        बुज़ुर्ग माता-पिता की सेवा से ज़्यादा जरूरी है, उन्हें अपनापन और सम्मान देना।  क्योंकि जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो उसके लिए दुनिया का पहला स्पर्श माँ का होता है और पहला सहारा पिता का। उस पल से लेकर जीवन के हर मोड़ तक माता-पिता अपने बच्चों के लिए दीवार बनकर खड़े रहते हैं। उनके लिए न बेटा बड़ा होता है, न बेटी छोटी। उनके स्नेह की परिभाषा में भेदभाव नाम का शब्द ही नहीं होता।       बचपन की वो तस्वीरें आज भी आंखों में बसी होती हैं, जब माँ देर रात तक जागकर बच्चों की बुखार में सेवा करती थी, और पिता बिना थके काम करके स्कूल की फीस, किताबें, और सपनों का बोझ अपने कंधों पर उठाए रहते थे। उनके लिए बेटा-बेटी दोनों ही उनके जीवन का केंद्र होते हैं। समय के साथ सब कुछ बदल जाता है...        समय के पंख तेज़ी से उड़ते हैं। बच्चे बड़े हो जाते हैं, अपने-अपने जीवन की दौड़ में लग जाते हैं। बेटा अपने करियर और जिम्मेदारियों में व्यस्त हो जाता है, वहीं बेटी अपने ससु...

वृद्धावस्था और बदलते सामाजिक सरोकार

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                                             तेजी से बदलते समय और सामाजिक संरचना के साथ वृद्धावस्था की परिभाषा भी बदलती जा रही है। कुछ दशक पहले तक यह एक सामान्य सोच थी कि संचित संपत्ति बुढ़ापे की सबसे बड़ी ढाल होती है। यह माना जाता था कि संतानें न केवल भावनात्मक जुड़ाव के कारण, बल्कि उस संपत्ति की सुरक्षा और हिस्सेदारी की भावना से भी माता-पिता की देखभाल करती थीं। लेकिन अब यह धारणा तेजी से क्षीण होती जा रही है।         समय और अनुभव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बुढ़ापे का सबसे बड़ा सहारा न तो धन होता है और न ही चल-अचल संपत्ति, बल्कि वह होते हैं, संस्कार, संबंध, और आपसी सम्मान। यदि हम चाहते हैं कि हमारी संतानें हमारी वृद्धावस्था में हमारे साथ खड़ी रहें, तो हमें उन्हें केवल संपत्ति नहीं, संवेदनशीलता और परिवार के मूल्यों की विरासत सौंपनी होगी। क्योंकि वृद्धावस्था की तैयारी अब केवल आर्थिक सुरक्षा तक सीमित नहीं रह सकती।       आज आवश्यकता इस बात की ...

रिटर्न गिफ्ट" की परंपरा बनाम भावनाओं की गरिमा

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  एक ज्वलंत सामाजिक विचार ...        यूं तो हमारे भारतीय समाज के किसी भी तरह के समारोहों में उपहार देना भारतीय संस्कृति का एक खूबसूरत पक्ष है, इसमें सिर्फ वस्तु नहीं, बल्कि देने वाले की भावना, आदर और आत्मीयता समाहित होती है।        परंतु आजकल एक चलन तेजी से प्रबल होता जा रहा है, “रिटर्न गिफ्ट”। यह वह उपहार है जो मेहमान को जवाब स्वरूप दिया जाता है, कभी औपचारिकता के नाम पर, तो कभी सामाजिक दबाव में या कभी समाज में अपने "स्टेटस" को ऊंचे पायदान पर दिखाने के लिए और स्थापित करने के लिए।        बच्चों के लिए रिटर्न गिफ्ट,एक सहज और समर्पित व्यवहार है। बच्चों के जन्मदिन, या उनके आयोजनों में रिटर्न गिफ्ट का विचार सहज रूप से स्वीकार्य है। उनका मन मासूम है, और वे उपहारों को एक खेल या आकर्षण के रूप में देखते हैं। वहां रिटर्न गिफ्ट बच्चों की खुशियों का हिस्सा बनता है, न कि कोई सामाजिक दबाव।       लेकिन वहीं, बड़ों के समारोह में रिटर्न गिफ्ट की प्रथा, सामाजिक ताने-बाने की जड़ों को कमजोर कर देने वाली है। जिससे अभी नहीं, किंत...

समाज और परिवार में संवाद का क्षय....

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    लगभग तीन दशक पूर्व, कभी घर की बैठकें और समाज की गोष्ठियाँ विचारों का केन्द्र हुआ करती थीं। लोग धर्म, शिक्षा, संस्कृति और जीवन मूल्यों पर विचार करते थे। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, सबका योगदान होता था, जिसमें संवाद, संवेदना, सहमति या असहमति में भी गरिमा होती थी।      किंतु धीरे-धीरे " राजनीति चर्चा " ने परिवार और समाज के बीच, संवाद का केंद्र बिंदु बन, गहरी पैठ बना ली है। आज घरों में सुबह की चाय से लेकर रात के भोजन तक का प्रमुख विषय राजनीति बन गया है।      सामाजिक मुद्दे जैसे बेरोजगारी, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य या ग्रामीण-नगरीय विकास आदि विषयों की सकारात्मक चर्चा गायब से हो गए हैं।     वही परिवारिक सरोकार के महत्वपूर्ण विषयों, जैसे पीढ़ियों के बीच आपसी समझ, बच्चों की मानसिक स्थिति, बुजुर्गों की आवश्यकता आदि पर विचार विमर्श, उपेक्षित होते जा रहे हैं।       जो सबसे ज्यादा चिंतनीय और भयभीत करने वाली बात यह है कि आज के दौर में आपस में, परिवार में, या बाजार में, राजनीतिक वाद-विवाद से रिश्तों में गंभीर दरार पड़ती हुई साफ द...

वृद्ध आश्रम की दीवार पर टंगी एक घड़ी की दास्तान

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"The Wall Clock’s Eyewitness View"        वृद्धाश्रम की " दीवार पर टंगी घड़ी" , जो दीवारों के पीछे छुपे उस मौन कराह को और स्पष्ट करती हैं क्योंकि हर वृद्धाश्रम में कुछ घड़ियाँ समय से बहुत पीछे चलती हैं...  "दीवार पर टंगी घड़ी" (वृद्धाश्रम की एक दीवार की दास्तान)       वो सुबह भी बाकी सुबहों की तरह थी, वृद्धाश्रम के लॉन में धूप पसरी थी, कुछ चेहरों पर शांति थी, क्योंकि शायद उन्होंने यही अपना अंतिम ठिकाना मान लिया लेकिन कुछ के चेहरों पर अभी भी अपनों का इंतज़ार साफ झलकता दिखता है।       कमरा संख्या 6 की खिड़की पर वही बूढ़े हाथ आज भी सहमे-सहमे परदे को थोड़ा सा सरकाकर बाहर देख रहे थे।         रामनाथ जी, 78 वर्ष, कभी स्कूल के प्रिंसिपल  हुआ करते थे, किंतु आज बस एक संख्या बन चुके हैं .... "आवास क्रमांक-6, उत्तर विंग, प्रथम तल"       उनके कमरे की दीवार पर एक घड़ी टंगी है, पुराने जमाने की,काले फ्रेम वाली, अंदर से पीली पड़ चुकी सुइयों वाली…जो पिछले कई सालों से 01:50 पर रुकी हुई है।    ...

ब्लॉग की शुरुआत : क्यों बना रिश्तों का ताना-बाना

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         हर परिवार, हर रिश्ते और हर अनुभव में कुछ ऐसा होता है जो केवल महसूस किया जा सकता है , पर कई वजहों से कहा नहीं जा पाता।    " रिश्तों का   ताना-बाना " मेरी कोशिश, इन अनकहे भावों को शब्द देने का माध्यम....      यह ब्लॉग मैंने इसलिए शुरू किया है, क्योंकि मैं समाज, परिवार और जीवन से जुड़ी, अपने अनुभव के आधार पर, उन बातों को कहना चाहता हूं जो सिर्फ दिल से निकलती हैं और सीधे दिल तक पहुंचती हैं।       यह एक यात्रा है, आत्मचिंतन की, अनुभवों की और रिश्तों के उन धागों की, जो जीवन को बुनते हैं।     स्वागत है आपका, इस भावनात्मक यात्रा में...        आपकी टिप्पणी मेरे लिए मार्गदर्शन होगी। आपके अनुभव और विचार ही इस “रिश्तों का ताना-बाना” को जीवंत बनाते हैं। मेरे "रिश्तों का ताना-बाना" ब्लॉग का लिंक 👇 https://manojbhatt63.blogspot.com   कृपया सब्सक्राइब करें....🙏 ✍️ अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दें... धन्यवाद 🙏                 मनोज भट्ट, कानपुर