"पीढ़ियों के लिए सोच से स्वार्थ तक की यात्रा"

दीर्घकालिक सोच बनाम तात्कालिक स्वार्थ एक वक़्त था जब हमारे पूर्वज फलदार वृक्ष इस सोच के साथ लगाते थे कि आने वाली पीढ़ियाँ उनका फल खाएँगी। यह केवल एक प्राकृतिक मकार्य नहीं था, बल्कि एक विचारधारा थी, समर्पण, परमार्थ और दीर्घकालिक सोच थी। लेकिन आज हम उस मोड़ पर आ पहुँचे हैं जहाँ यह सोच धुंधली होती जा रही है। वर्तमान परिदृश्य में, "अभी और मेरे लिए " आज का व्यक्ति, शीघ्र लाभ की तलाश में है। सरल शब्दों में कहा जाए तो वह उसी वृक्ष को लगाना चाहता है, जिसका फल वह स्वयं खा सके। अपने नाती पोतों की तो बात ही छोड़िए, अपने बच्चों के लिए भी नहीं सोचता। उसका ध्यान स्वयं तक सीमित हो गया है, न आने वाली पीढ़ियाँ उसकी दृष्टि में हैं, न ही उनके हित। बच्चों के भविष्य की चिंता गौण होती जा रही है। समाज में व्यक्तिगत सुख-सुविधा ही प्राथमिकता बन चुकी है और साझा जिम्मेदारियों का स्थान व्यक्तिगत स्वार्थ ले रहा है। समाज में इसके त्वरित दुष्परिणाम, विभिन्न रूप में देखने को मिल रहे हैं। आपसी संबंधों में दूरी बढ़ रही है, प...