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बदलता भारतीय समाज और हम लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"पीढ़ियों के लिए सोच से स्वार्थ तक की यात्रा"

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दीर्घकालिक सोच बनाम तात्कालिक स्वार्थ         एक वक़्त था जब हमारे पूर्वज फलदार वृक्ष इस सोच के साथ लगाते थे कि आने वाली पीढ़ियाँ उनका फल खाएँगी। यह केवल एक प्राकृतिक मकार्य नहीं था, बल्कि एक विचारधारा थी, समर्पण, परमार्थ और दीर्घकालिक सोच थी। लेकिन आज हम उस मोड़ पर आ पहुँचे हैं जहाँ यह सोच धुंधली होती जा रही है। वर्तमान परिदृश्य में, "अभी और मेरे लिए "       आज का व्यक्ति, शीघ्र लाभ की तलाश में है। सरल शब्दों में कहा जाए तो वह उसी वृक्ष को लगाना चाहता है, जिसका फल वह स्वयं खा सके। अपने नाती पोतों की तो बात ही छोड़िए, अपने बच्चों के लिए भी नहीं सोचता। उसका ध्यान स्वयं तक सीमित हो गया है, न आने वाली पीढ़ियाँ उसकी दृष्टि में हैं, न ही उनके हित।       बच्चों के भविष्य की चिंता गौण होती जा रही है। समाज में व्यक्तिगत सुख-सुविधा ही प्राथमिकता बन चुकी है और साझा जिम्मेदारियों का स्थान व्यक्तिगत स्वार्थ ले रहा है।        समाज में इसके त्वरित दुष्परिणाम, विभिन्न रूप में देखने को मिल रहे हैं। आपसी संबंधों में दूरी बढ़ रही है, प...

रिटर्न गिफ्ट" की परंपरा बनाम भावनाओं की गरिमा

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  एक ज्वलंत सामाजिक विचार ...        यूं तो हमारे भारतीय समाज के किसी भी तरह के समारोहों में उपहार देना भारतीय संस्कृति का एक खूबसूरत पक्ष है, इसमें सिर्फ वस्तु नहीं, बल्कि देने वाले की भावना, आदर और आत्मीयता समाहित होती है।        परंतु आजकल एक चलन तेजी से प्रबल होता जा रहा है, “रिटर्न गिफ्ट”। यह वह उपहार है जो मेहमान को जवाब स्वरूप दिया जाता है, कभी औपचारिकता के नाम पर, तो कभी सामाजिक दबाव में या कभी समाज में अपने "स्टेटस" को ऊंचे पायदान पर दिखाने के लिए और स्थापित करने के लिए।        बच्चों के लिए रिटर्न गिफ्ट,एक सहज और समर्पित व्यवहार है। बच्चों के जन्मदिन, या उनके आयोजनों में रिटर्न गिफ्ट का विचार सहज रूप से स्वीकार्य है। उनका मन मासूम है, और वे उपहारों को एक खेल या आकर्षण के रूप में देखते हैं। वहां रिटर्न गिफ्ट बच्चों की खुशियों का हिस्सा बनता है, न कि कोई सामाजिक दबाव।       लेकिन वहीं, बड़ों के समारोह में रिटर्न गिफ्ट की प्रथा, सामाजिक ताने-बाने की जड़ों को कमजोर कर देने वाली है। जिससे अभी नहीं, किंत...

समाज और परिवार में संवाद का क्षय....

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    लगभग तीन दशक पूर्व, कभी घर की बैठकें और समाज की गोष्ठियाँ विचारों का केन्द्र हुआ करती थीं। लोग धर्म, शिक्षा, संस्कृति और जीवन मूल्यों पर विचार करते थे। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, सबका योगदान होता था, जिसमें संवाद, संवेदना, सहमति या असहमति में भी गरिमा होती थी।      किंतु धीरे-धीरे " राजनीति चर्चा " ने परिवार और समाज के बीच, संवाद का केंद्र बिंदु बन, गहरी पैठ बना ली है। आज घरों में सुबह की चाय से लेकर रात के भोजन तक का प्रमुख विषय राजनीति बन गया है।      सामाजिक मुद्दे जैसे बेरोजगारी, शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य या ग्रामीण-नगरीय विकास आदि विषयों की सकारात्मक चर्चा गायब से हो गए हैं।     वही परिवारिक सरोकार के महत्वपूर्ण विषयों, जैसे पीढ़ियों के बीच आपसी समझ, बच्चों की मानसिक स्थिति, बुजुर्गों की आवश्यकता आदि पर विचार विमर्श, उपेक्षित होते जा रहे हैं।       जो सबसे ज्यादा चिंतनीय और भयभीत करने वाली बात यह है कि आज के दौर में आपस में, परिवार में, या बाजार में, राजनीतिक वाद-विवाद से रिश्तों में गंभीर दरार पड़ती हुई साफ द...