रिटर्न गिफ्ट" की परंपरा बनाम भावनाओं की गरिमा

बड़ों के समुदाय में रिटर्न गिफ्ट का चलन... शर्मनाक


  एक ज्वलंत सामाजिक विचार ...

       यूं तो हमारे भारतीय समाज के किसी भी तरह के समारोहों में उपहार देना भारतीय संस्कृति का एक खूबसूरत पक्ष है, इसमें सिर्फ वस्तु नहीं, बल्कि देने वाले की भावना, आदर और आत्मीयता समाहित होती है। 

      परंतु आजकल एक चलन तेजी से प्रबल होता जा रहा है, “रिटर्न गिफ्ट”। यह वह उपहार है जो मेहमान को जवाब स्वरूप दिया जाता है, कभी औपचारिकता के नाम पर, तो कभी सामाजिक दबाव में या कभी समाज में अपने "स्टेटस" को ऊंचे पायदान पर दिखाने के लिए और स्थापित करने के लिए। 

      बच्चों के लिए रिटर्न गिफ्ट,एक सहज और समर्पित व्यवहार है। बच्चों के जन्मदिन, या उनके आयोजनों में रिटर्न गिफ्ट का विचार सहज रूप से स्वीकार्य है। उनका मन मासूम है, और वे उपहारों को एक खेल या आकर्षण के रूप में देखते हैं। वहां रिटर्न गिफ्ट बच्चों की खुशियों का हिस्सा बनता है, न कि कोई सामाजिक दबाव।

      लेकिन वहीं, बड़ों के समारोह में रिटर्न गिफ्ट की प्रथा, सामाजिक ताने-बाने की जड़ों को कमजोर कर देने वाली है। जिससे अभी नहीं, किंतु निकट भविष्य में इसके नकारात्मक प्रभाव परिवारों को और समाज को देखने को जरुर मिलेंगे। इस प्रथा का हमारे "सम्मान" की गरिमा पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने की आवश्यकता है। 

        आईए इस को सरल तरीके से समझते हैं, जब यह प्रथा बड़ों के आयोजनों में प्रवेश करती है, तो उसके पीछे की "संवेदना" धुंधली होने लगती है। "उसने गिफ्ट दिया था, हमने भी दिया", यह सोच कहीं न कहीं उस मूल भावना को कम कर देती है, जिसके तहत उपहार दिया गया था। ऐसा लगता है जैसे भावना को एक लेन-देन में बदल दिया गया हो।

       इससे हमारे सम्मान और हमारे "निष्पक्ष" बने रहने पर कुठाराघात तो होगा ही, साथ ही इसके गंभीर प्रभाव सामाज पर पड़ना अवश्यंभावी हैं। सोचने की बात है कि यदि कोई, किसी कारणवश उपहार नहीं ला पाता और उसे भी रिटर्न गिफ्ट दिया जाता है, तो यह उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाती है।

     सबसे बड़ी बात, कई बार व्यक्ति रिटर्न गिफ्ट स्वीकार कर लेने के बाद, गिफ्ट देने वाले की कई अनुचित बातों का विरोध, कई अवसरों पर भी करने का नैतिक साहस खो देता है। क्योंकि उपहार का “बिना कहे बोझ” कहीं ना कहीं दिल पर हमेशा बना रहता है।

       इससे आम परिवारों में बदलती हुई सोच और प्रवृत्ति, समाज में प्रतिष्ठा दिखाने की लालसा, या “बड़ा दिल” जताने की होड़ में यह प्रथा धीरे-धीरे एक सामाजिक कु-प्रथा का रूप ले रही है। हमें इस पर विचार करना होगा, क्या हम उपहारों को "भावना की अभिव्यक्ति" रखना चाहते हैं या उन्हें एक "सामाजिक लेन-देन" .... ?

      समाज में जागरूकता और विमर्श की महती आवश्यकता है। अब समय आ गया है कि मनोविज्ञान के इस गंभीर विषय पर सामाजिक मंचों, लेखों, चर्चाओं और व्यक्तिगत संवाद के माध्यम से जागरूकता लाई जाए। "रिटर्न गिफ्ट" के पीछे की भावना, स्थिति और आयु का विवेकपूर्ण मूल्यांकन होना चाहिए।  

        हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ें, जहाँ उपहार, "भावना का प्रतीक" हो, "प्रतिस्पर्धा" का नहीं, आदर हो, लेन-देन नहीं। साथ ही आत्मसम्मान बना रहे, दिखावा ना हो।

       अतः आईए हम सब अपने संवेदनशील भारतीय समाज के इन भविष्यगत सूक्ष्म मुद्दों पर विमर्श शुरू करें, तो रिश्तों की गरिमा बनी रहेगी और भावनाओं की सच्ची अभिव्यक्ति सुनिश्चित होगी। यही संवेदनशीलता एवं विवेक, हमारे सामाजिक ढांचे की नींव है... और एक दूसरे से बांधे रखने का ताना - बाना है...


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