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वृद्धावस्था और आज की युवा पीढ़ी लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माता-पिता: बेटा-बेटी दोनों की जिम्मेदारी, पर सम्मान सहित ....

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"Parents: Responsibility for both son and daughter, but with respect."        बुज़ुर्ग माता-पिता की सेवा से ज़्यादा जरूरी है, उन्हें अपनापन और सम्मान देना।  क्योंकि जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो उसके लिए दुनिया का पहला स्पर्श माँ का होता है और पहला सहारा पिता का। उस पल से लेकर जीवन के हर मोड़ तक माता-पिता अपने बच्चों के लिए दीवार बनकर खड़े रहते हैं। उनके लिए न बेटा बड़ा होता है, न बेटी छोटी। उनके स्नेह की परिभाषा में भेदभाव नाम का शब्द ही नहीं होता।       बचपन की वो तस्वीरें आज भी आंखों में बसी होती हैं, जब माँ देर रात तक जागकर बच्चों की बुखार में सेवा करती थी, और पिता बिना थके काम करके स्कूल की फीस, किताबें, और सपनों का बोझ अपने कंधों पर उठाए रहते थे। उनके लिए बेटा-बेटी दोनों ही उनके जीवन का केंद्र होते हैं। समय के साथ सब कुछ बदल जाता है...        समय के पंख तेज़ी से उड़ते हैं। बच्चे बड़े हो जाते हैं, अपने-अपने जीवन की दौड़ में लग जाते हैं। बेटा अपने करियर और जिम्मेदारियों में व्यस्त हो जाता है, वहीं बेटी अपने ससु...

वृद्धावस्था और बदलते सामाजिक सरोकार

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                                             तेजी से बदलते समय और सामाजिक संरचना के साथ वृद्धावस्था की परिभाषा भी बदलती जा रही है। कुछ दशक पहले तक यह एक सामान्य सोच थी कि संचित संपत्ति बुढ़ापे की सबसे बड़ी ढाल होती है। यह माना जाता था कि संतानें न केवल भावनात्मक जुड़ाव के कारण, बल्कि उस संपत्ति की सुरक्षा और हिस्सेदारी की भावना से भी माता-पिता की देखभाल करती थीं। लेकिन अब यह धारणा तेजी से क्षीण होती जा रही है।         समय और अनुभव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि बुढ़ापे का सबसे बड़ा सहारा न तो धन होता है और न ही चल-अचल संपत्ति, बल्कि वह होते हैं, संस्कार, संबंध, और आपसी सम्मान। यदि हम चाहते हैं कि हमारी संतानें हमारी वृद्धावस्था में हमारे साथ खड़ी रहें, तो हमें उन्हें केवल संपत्ति नहीं, संवेदनशीलता और परिवार के मूल्यों की विरासत सौंपनी होगी। क्योंकि वृद्धावस्था की तैयारी अब केवल आर्थिक सुरक्षा तक सीमित नहीं रह सकती।       आज आवश्यकता इस बात की ...

वृद्ध आश्रम की दीवार पर टंगी एक घड़ी की दास्तान

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"The Wall Clock’s Eyewitness View"        वृद्धाश्रम की " दीवार पर टंगी घड़ी" , जो दीवारों के पीछे छुपे उस मौन कराह को और स्पष्ट करती हैं क्योंकि हर वृद्धाश्रम में कुछ घड़ियाँ समय से बहुत पीछे चलती हैं...  "दीवार पर टंगी घड़ी" (वृद्धाश्रम की एक दीवार की दास्तान)       वो सुबह भी बाकी सुबहों की तरह थी, वृद्धाश्रम के लॉन में धूप पसरी थी, कुछ चेहरों पर शांति थी, क्योंकि शायद उन्होंने यही अपना अंतिम ठिकाना मान लिया लेकिन कुछ के चेहरों पर अभी भी अपनों का इंतज़ार साफ झलकता दिखता है।       कमरा संख्या 6 की खिड़की पर वही बूढ़े हाथ आज भी सहमे-सहमे परदे को थोड़ा सा सरकाकर बाहर देख रहे थे।         रामनाथ जी, 78 वर्ष, कभी स्कूल के प्रिंसिपल  हुआ करते थे, किंतु आज बस एक संख्या बन चुके हैं .... "आवास क्रमांक-6, उत्तर विंग, प्रथम तल"       उनके कमरे की दीवार पर एक घड़ी टंगी है, पुराने जमाने की,काले फ्रेम वाली, अंदर से पीली पड़ चुकी सुइयों वाली…जो पिछले कई सालों से 01:50 पर रुकी हुई है।    ...