वृद्ध आश्रम की दीवार पर टंगी एक घड़ी की दास्तान


हर वृद्धाश्रम की अपनी एक कहानी...
"The Wall Clock’s Eyewitness View"


       वृद्धाश्रम की "दीवार पर टंगी घड़ी", जो दीवारों के पीछे छुपे उस मौन कराह को और स्पष्ट करती हैं क्योंकि हर वृद्धाश्रम में कुछ घड़ियाँ समय से बहुत पीछे चलती हैं...

 "दीवार पर टंगी घड़ी"

(वृद्धाश्रम की एक दीवार की दास्तान)

      वो सुबह भी बाकी सुबहों की तरह थी, वृद्धाश्रम के लॉन में धूप पसरी थी, कुछ चेहरों पर शांति थी, क्योंकि शायद उन्होंने यही अपना अंतिम ठिकाना मान लिया लेकिन कुछ के चेहरों पर अभी भी अपनों का इंतज़ार साफ झलकता दिखता है।

      कमरा संख्या 6 की खिड़की पर वही बूढ़े हाथ आज भी सहमे-सहमे परदे को थोड़ा सा सरकाकर बाहर देख रहे थे।  

      रामनाथ जी, 78 वर्ष, कभी स्कूल के प्रिंसिपल  हुआ करते थे, किंतु आज बस एक संख्या बन चुके हैं .... "आवास क्रमांक-6, उत्तर विंग, प्रथम तल"

      उनके कमरे की दीवार पर एक घड़ी टंगी है, पुराने जमाने की,काले फ्रेम वाली, अंदर से पीली पड़ चुकी सुइयों वाली…जो पिछले कई सालों से 01:50 पर रुकी हुई है। 

      रामनाथ जी एक पुरानी डायरी भी रखते थे, किंतु उसमें सिर्फ " साल में एक बार, एक लाइन " लिखते थे और बंद कर देते थे...

      "घड़ी बदलें सर..?" देखभाल करने वाले दीपू ने अचानक आकर पूछा। रामनाथ जी ने वही चिर परिचित, हल्की मुस्कान दी… वो मुस्कान जिसमें जवाब भी था और क्षोभ भी। गहरी सांस लेकर बोले, "समय तो तभी रुक गया था बेटा… जब उसने कहा था... " पापा, आप कुछ दिनों के लिए यहाँ रह लीजिए...मैं इन दिनों बहुत व्यस्त हूँ….जल्द ही लेने आऊंगी ’"....

      और फिर उसके बाद से घड़ी...उम्मीद...और जीवन... सब एक साथ ठहर गए। दिन ढलते गए लेकिन घड़ी का समय स्थिर रहा। वहां जिस वक्त कुछ बुज़ुर्ग ताश खेलते, कुछ टेलीविज़न देखते समय बिता रहे थे, रामनाथ जी…उस वक्त दीवार में टंगी घड़ी को एक टक निहारते रहते थे...

      देखिए एक दर्दनाक पहलू ... हर साल उनके जन्मदिन पर एक केक आता है, उसी वक्त और उसी मेज पर, उसी खाली कुर्सी के सामने... जिस पर न कभी उनकी बेटी बैठी, न नाती। बस एक कार्ड… जिसमें केवल दो शब्द होते हैं:  “With Love”

     और हर बार की तरह वह डायरी खुलती है , वही पन्ना, वही हाथ, वही कांपती लिखावट.. और फिर से वही लाइन ,“ मैं आज भी तैयार हूँ, बेटी…”

     फिर एक दिन, कमरा नंबर 6 सूना था। कुर्सी खाली, चश्मा मेज़ पर, और घड़ी… अब भी 01:50 पर अटकी। पर इस बार घड़ी के पास एक नया पर्चा चिपका था, जिस पर लिखा था...

 " यह वही समय था… जब इंतज़ार शुरू हुआ था... और आज भी वही समय है, लेकिन बेटी का इंतजार आज भी है..."

                                     मनोज भट्ट कानपुर

                                        ०९ जुलाई २०२५

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टिप्पणियाँ

  1. रिश्तों की विद्रूपताओं को रोचक शैली में प्रस्तुत किया है. आज अपने बच्चों के पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अभिभावकों के लिए ये सबक है कि जिन बच्चों के लिए आज तुम अन्य सभी रिश्तों को दरकिनार कर रहे हो, वही बच्चे तुम्हारे जीवन की अन्तिम अवस्था में, तुम्हें ऐसे ही उपेक्षित वानप्रस्थ देंगे, जिस प्रकार आज तुम अपने वृद्ध माता पिता को दे रहे हो.

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    1. आज की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित है, अपने भावी लक्ष्य के लिए वे अपना और अपने परिवार के प्रति वर्तमान जिम्मेदारियां भी नहीं निभा रहे हैं.

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  2. आज की पीढी से इससे ज्यादा और कर भी क्या सकती है।

    जवाब देंहटाएं

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