" क्षमा ", रिश्तों और समाज का सबसे बड़ा साहस
क्या आपने कभी सोचा है कि जब हम अपनी ढेरों गलतियों को नज़रअंदाज़ कर स्वयं को माफ़ कर देते हैं, तो दूसरों को माफ़ करना इतना कठिन क्यों लगता है...?
वजह, आज का समाज आत्ममंथन से दूर होता जा रहा है। हम अपनी कमियों को चुपचाप स्वीकार कर लेते हैं और उन्हें “इंसानी फितरत” कहकर तर्कों की परत चढ़ा देते हैं। और खुद से प्रेम करते रहते हैं, मानो कुछ हुआ ही न हो।
लेकिन जैसे ही सामने वाला कोई गलती करता है तो हमारे भीतर कठोरता जन्म लेती है और हम उसके नाम पर नफ़रत के पत्थर गढ़ने लगते हैं।
हम खुद को तो माफ़ कर देते हैं, पर किसी और को वही एक मौका क्यों नहीं देते ? यही दोहरापन न केवल रिश्तों को खोखला करता है, बल्कि पूरी सामाजिक संरचना को भी कमजोर बना रहा है।
आज के समय में हम दूसरो को उसकी छोटी सी भी गलती में उसको सबसे बुरे इंसान के रूप से याद रखते है और उसे कभी "क्षमा" न करने की धारणा मन में रख लेते हैं और वहीं स्वयं को अपनी बड़ी से बड़ी गलतियों के लिए अपने को "क्षमा" कर, अच्छे इरादों से आंकते हैं। यह सोच ही हमारे व्यवहार का सबसे बड़ा विरोधाभास है।
याद रखिए कि जिस समाज में "क्षमा" और "सह-अस्तित्व" को महत्व दिया जाएगा, वहाँ "न्याय" भी अधिक मानवीय और टिकाऊ होगा।
इंसान होने का अर्थ ही है, गलती करना। लेकिन "सबसे बेहतर" इंसान बनने का अर्थ है, अपने अंदर दूसरों को "क्षमा" करने का "साहसिक" गुण पैदा करना।
किंतु प्रश्न इस बात का है कि परिवर्तन की शुरुआत कहाँ से होगी...? वहीं से, जहाँ हम दूसरों को उतनी ही जगह देना शुरू करेंगे, जितनी हम, अपनी कमियों के बावजूद भी खुद के लिए देते हैं।
- "क्षमाशीलता, कमजोरी नहीं, बल्कि हमारी सबसे बड़ी शक्ति है।"
- "किसी को दूसरा मौका देना, वास्तव में खुद को बेहतर इंसान बनने का पहला मौका देना है।"
यह लेख “रिश्तों का ताना-बाना” ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है।
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पढ़ने के लिए धन्यवाद...🙏
आपके उपरोक्त उत्कृष्ट लेख को थोड़ा सा आगे बढ़ाते हुए कहना चाहूँगा कि समाज में एक वर्ग वो है, जो ये भलीभाँति जानते समझते हैं कि वे गलतियाँ कर रहे हैं, लेकिन वे इन गलतियों को स्वीकार नहीं करते हैं और दूसरों की गलतियों को सबके सामने लाने के प्रयास में जी जान लगाते रहते हैं. लेकिन समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जो स्वयं को सदैव न्यायोचित ही ठहराता है और वो स्वयं को अपने मन में ही अपने ही कुतर्कों द्वारा निर्दोष साबित करता है. एक बार अपने ही दिल में इस प्रकार की धारणा स्थापित करने के बाद वो समाज में खुलकर अपने को निर्दोष घोषित करता है. इसके पीछे जो सबसे बड़ा कारण है वो ये है कि वो अपने को कभी स्वयं से अलग कर के नहीं देखता है, जिसको मनीषियों ने साक्षी भाव से देखना बताया था. जिस क्षण हम स्वयं को साक्षी भाव से विश्लेषित करने लगते हैं, तब हमें स्वयं के अपराध और त्रुटियाँ स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगती हैं. फिर हम सबसे पहले स्वयं को ही बदलने का प्रयास प्रारम्भ कर देते हैं.
जवाब देंहटाएं"आदरणीय प्रवीन जी, आपके विचार वास्तव में गहन और सटीक हैं। आपने जिस साक्षी भाव की ओर ध्यान दिलाया है, वही आत्मपरिवर्तन की सबसे बड़ी कुंजी है। जब व्यक्ति स्वयं को निष्पक्ष दृष्टि से देखने लगता है, तभी सुधार की वास्तविक शुरुआत होती है। आपके इस सारगर्भित योगदान के लिए हृदय से आभार।"
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