"हँसी के पीछे छुपी सच्चाई, व्यथा के पीछे छुपा व्यंग्य।"
जीवन की राहों पर हम सभी कभी न कभी ठोकर खाते हैं, कहीं न कहीं "पिटते" हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक, घर से लेकर गली-मोहल्ले तक, मंदिर-मस्जिद से लेकर सरकारी दफ्तर तक, हर जगह किसी न किसी रूप में इंसान ठोकर खाता ही रहता है। कभी समाज से, कभी परिवार से, कभी व्यवस्था से और कभी रिश्तों से।
यह कविता "कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं…" केवल हास्य नहीं है, बल्कि एक गहरा व्यंग्य है उस जिंदगी पर, जहाँ आम आदमी की पीड़ा हर युग में एक-सी बनी रही है। यह व्यथा हँसते-हँसते सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर इंसान कब तक इस "पिटाई" को सहता रहेगा और कब उसकी आवाज़ सुनी जाएगी।
रचना आपको हँसी भी दिलाएगी, सोचने पर भी विवश करेगी और जीवन की कटु सच्चाइयों से भी रूबरू कराएगी।
आइए पढ़ते हैं यह व्यंग्यात्मक काव्य....
कल की कथा,और आज की व्यथा...
जब हम बचपन में छोटे थे, बिन बात के पिटते थे
स्कूल कॉलेज में पढ़ते थे,फिर भी हम पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
बातों पर तो पिटते ही थे,बिना बात के पिटते थे
हाथों से तो पिटते ही थे, तो लातों से भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
सड़कों में चलते थे, पर रस्ते में हम पिटते थे
गुंडों से तो पिटते ही थे, पुलिस से भी हम पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
ट्रेनों पर हम चढ़ते थे, पर ना जाने क्यूं पिटते थे
कचहरी जब जाते थे, हम वकीलों से भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
जब अस्पताल हम जाते थे, तब नर्सों से पिटते थे
शिकायत जब करते थे, हम डॉक्टर से भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
बैंक में हम जब जाते थे, तब बाबू जी से पिटते थे
शिकायत जब करते थे, मैनेजर से भी हम पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
सरकारी दफ्तर में जाते,चपरासी से हम पिटते थे
ऊपर जब हम बात करें तो, अफसर से भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
हिंदू से तो पिटते थे ही, मुस्लिम से भी हम पिटते थे
ईसाई से हम पिटते थे, तो सिखों से भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
मंदिर जब हम जाते थे, पंडित वन्डित से पिटते थे
प्रसाद को पिटते थे ही, हम प्रभु दर्शन में भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
मंदिर में तो पिटते थे ही, हम मस्जिद में भी पिटते थे
गिरजे में हम पिटते थे , तो गुरुद्वारे में भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
पिक्चर को हम जाते थे, तब टिकट के लिए पिटते थे
लाइन में जब लगते थे, न जाने क्यूं हम पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
बापू से हम पिटते ही थे, अम्मा से भी पिटते थे
भैया से भी पिटते थे, और भाभी से भी हम पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
मैके में हम पिटते थे, फिर ससुरालें में पिटते थे
बीवी से तो पिटते ही थे, हम सालिन से भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
पिटते पिटते जीते थे हम, और जीते जीते पिटते थे
जगते में हम पिटते थे, और सोते में भी पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
बाहर तो हम पिटते ही थे ,घर में भी पिटते थे
तन से तो बहुत पिटे थे, मन से भी हम पिटते थे
कल भी हम पिटते थे, आज भी हम पिटते हैं..
अब तो भैया हद हो गई...
बचपन से "हम" पिटते आ रहे...
आज भी "हम" पीटे जा रहे ....
जगह जगह "हम" पीटे जा रहे...
हर जगह "हम" पीटे जा रहे...
बेशर्मी से जीते जा रहे ...
फिर भी "हम" जीते जा रहे...
मनोज भट्ट, कानपुर
आपने एक कविता से कितने मजाकिया तरीके से एक गंभीर संदेश बताया है वाह बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद निष्ठा जी 🙏 आप मेरे ब्लॉग के हर लेख को सिर्फ पढ़ती ही नहीं हैं बल्कि एक सारगर्भित टिप्पणी भी करती हैं, ये मेरे लिए प्रेरणादाई है।
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