शिक्षा से पहले सभ्यता Civility Before Education



शिक्षित होने से पहले सभ्य होना आवश्यक है
(एक दृष्टिकोण)

      आज का युग ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और प्रगति का युग कहा जाता है। हर ओर डिग्रियों की दौड़ है, बच्चों से लेकर युवाओं तक हर कोई केवल इस प्रतिस्पर्धा में उलझा हुआ है कि कौन अधिक अंक लाता है, किसे बेहतर संस्थान से डिग्री मिलती है, कौन ऊँचे वेतन वाली नौकरी पाता है। 

     लेकिन इस आपाधापी में एक महत्वपूर्ण प्रश्न पीछे छूट जाता है कि क्या केवल शिक्षित होना ही पर्याप्त है, या सभ्य होना, उससे कहीं अधिक अनिवार्य है ?

शिक्षा और सभ्यता में अंतर की सूक्ष्म रेखा

     शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन नहीं है। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, इंसान को इंसान बनाना, उसके भीतर नैतिकता, संवेदनशीलता और मानवता का बीजारोपण करना। लेकिन दुर्भाग्य से आज शिक्षा की परिभाषा केवल अंकतालिका, परीक्षा परिणाम और कैरियर की ऊँचाइयों तक सिमट कर रह गई है।

     जबकि सभ्यता वह गुण है जो शिक्षा से परे जाकर हमें जीवन जीने का तरीका सिखाती है। सभ्य होने का मतलब है, दूसरों के विचारों का सम्मान करना, अपनी सीमाओं को समझना, और समाज के लिए उपयोगी दृष्टिकोण अपनाना।

डिग्रियों के पीछे छिपा खोखलापन

      हम अक्सर ऐसे लोगों से मिलते हैं, जो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से डिग्रियाँ लेकर ऊँचे पदों पर बैठे हैं। लेकिन उनका व्यवहार कठोर, स्वार्थी और कभी-कभी क्रूर भी होता है। उनके पास ज्ञान का भंडार हो सकता है, लेकिन संवेदनशीलता की कमी उन्हें एक असभ्य नागरिक बना देता है।

      दूसरी ओर, गाँव-गली या सामान्य परिवारों में ऐसे लोग भी मिल जाते हैं, जिनके पास ज्यादा शिक्षा नहीं है, परंतु उनका व्यवहार इतना सौम्य, उनका हृदय इतना विशाल होता है कि वे समाज के लिए मिसाल बन जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता, शिक्षा से कहीं अधिक गहरी और प्रभावशाली चीज़ है।

सभ्यता कहाँ से आती है?

     सभ्यता किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं पढ़ाई जाती। यह घर के संस्कारों, समाज के अनुभवों और आत्मचिंतन की प्रक्रिया से विकसित होती है।
  • घर के संस्कार -- एक माता-पिता जब बच्चों को आदर, संयम और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हैं, तो वही संस्कार उनके जीवनभर का आधार बनते हैं।
  • जीवन के अनुभव -- कठिनाइयों से जूझना, असफलताओं से सीखना और दूसरों के दुःख को समझना व्यक्ति को संवेदनशील बनाते हैं।
  • आत्मचिंतन -- जो व्यक्ति स्वयं को सुधारने का प्रयास करता है, अपनी गलतियों पर विचार करता है और बेहतर इंसान बनने की कोशिश करता है, वही वास्तव में सभ्य कहलाता है।
सभ्यता के नाम पर मौन -- वरदान या अभिशाप ?
  • आज का समाज अक्सर “सभ्यता” को गलत अर्थों में लेता है। लोग मानते हैं कि चुप रहना, किसी का विरोध न करना, सब कुछ सहन कर लेना ही सभ्य होने का प्रमाण है। लेकिन यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है।
  • जब अन्याय सामने हो, जब समाज-विरोधी नीतियाँ लागू हो रही हों, जब कोई कमजोर शोषित हो रहा हो, उस समय चुप रह जाना सभ्यता नहीं, बल्कि कायरता है।
  • सभ्यता का सही स्वरूप है, दूसरों का सम्मान करते हुए भी अन्याय का विरोध करना। यदि हम केवल मौन दर्शक बनकर रहेंगे, तो हमारी यह तथाकथित सभ्यता समाज को धीरे-धीरे खोखला कर देगी।
सच्ची शिक्षा और सच्ची सभ्यता का संगम
  • सिर्फ शिक्षित होना व्यक्ति को ऊँचा नहीं बनाता, और सिर्फ सभ्य होना भी पर्याप्त नहीं। जब तक दोनों का संगम नहीं होगा, समाज का सही विकास संभव नहीं है।
  • शिक्षा हमें ज्ञान देती है, पर सभ्यता हमें उस ज्ञान का सही उपयोग करना सिखाती है।
  • शिक्षा हमें तर्क करना सिखाती है, पर सभ्यता हमें दूसरों के विचारों का सम्मान करना सिखाती है।
  • शिक्षा हमें आत्मनिर्भर बनाती है, पर सभ्यता हमें सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास कराती है।
युवा पीढ़ी के लिए संदेश

      आज की युवा पीढ़ी अक्सर सोचती है कि जीवन का उद्देश्य केवल करियर बनाना और सफलता प्राप्त करना है। लेकिन यदि उस सफलता में दूसरों के लिए संवेदना नहीं है, तो वह अधूरी है। जैसे...
  • एक डॉक्टर तभी महान बन सकता है जब वह मरीज को केवल ‘केस’ न समझकर इंसान समझे।
  • एक शिक्षक तभी आदर्श कहलाएगा जब वह केवल किताबों का ज्ञान न देकर बच्चों में मूल्य आधारित संस्कार भी रोपे।
  • एक नेता तभी सच्चा प्रतिनिधि साबित हो सकता है जब तक कि वह पद की ताकत से नहीं, बल्कि जनता की सेवा से पहचाना ना जाए।
      अब समय आ गया है कि हम शिक्षा और सभ्यता के बीच संतुलन स्थापित करें। इसके लिए सभी को कुछ ठोस प्रयासों को समझने की आवश्यकता हैं -- 

1. परिवार में मूल्य-आधारित शिक्षा -- माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को केवल पढ़ाई ही नहीं, बल्कि ईमानदारी, करुणा और सहिष्णुता का पाठ भी पढ़ाएँ।

2. शैक्षणिक संस्थानों में चरित्र-निर्माण -- विद्यालय और महाविद्यालयों को केवल अंक-प्रतिस्पर्धा से हटकर नैतिक शिक्षा पर भी ध्यान देना होगा।

3. समाज में सक्रिय नागरिकता -- हर नागरिक को यह समझना होगा कि उसकी चुप्पी अन्याय को और बढ़ावा देती है। इसलिए जहाँ भी गलत हो, वहाँ आवाज़ उठाना ही सभ्यता है।

4. आत्मचिंतन की आदत -- हर व्यक्ति को समय-समय पर स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिए कि क्या वह सच में सभ्य है, या केवल औपचारिक शिक्षा से भ्रमित है।

     अंत में उपरोक्त तथ्य से यह निष्कर्ष यह निकलता सभ्यता और शिक्षा, दोनों ही आवश्यक हैं। परंतु यदि हमें प्राथमिकता तय करनी पड़े, तो सभ्यता पहले और शिक्षा बाद में होनी चाहिए। 

      " सभ्य व्यक्ति बिना डिग्री के भी समाज में सम्मान पाता है, लेकिन असभ्य व्यक्ति, चाहे जितना शिक्षित हो, अंततः तिरस्कार का पात्र बनता है।"

      आज के दौर में हमें यह आत्मचिंतन करना होगा कि हम केवल डिग्रियों के पीछे भाग रहे हैं या सच में इंसान बनने की ओर अग्रसर हैं। 
 
      यदि शिक्षा और सभ्यता एक साथ खड़ी हो गईं, तो न केवल व्यक्ति, बल्कि पूरा समाज और देश एक नई दिशा की ओर बढ़ेगा, जहाँ ज्ञान के साथ संवेदनशीलता, और प्रगति के साथ मानवता भी होगी...

“रिश्तों का ताना-बाना” ब्लॉग हेतु यह विशेष लेख प्रकाशित हुआ है। परिवार, समाज और मन के रिश्तों की बातों के लिए पढ़ते रहें:👇  https://manojbhatt63.blogspot.com 

 पढ़ने के लिए धन्यवाद...🙏

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

माता-पिता: बेटा-बेटी दोनों की जिम्मेदारी, पर सम्मान सहित ....

रिटर्न गिफ्ट" की परंपरा बनाम भावनाओं की गरिमा

"पीढ़ियों के लिए सोच से स्वार्थ तक की यात्रा"

" क्षमा ", रिश्तों और समाज का सबसे बड़ा साहस

कल की कथा, आज की व्यथा | Yesterday & Today’s Pain

समाज और परिवार में संवाद का क्षय....

आम आदमी को ईश्वर संदेश Devine Massege to the Common Man

एक गुप्तरोग..., मनोरोग

वृद्ध आश्रम की दीवार पर टंगी एक घड़ी की दास्तान

“संस्कार"...सोच और नजरिए की असली जड़”