Thursday, September 11, 2025

"दिमाग की आंखें खोलना: पूर्वाग्रहों से मुक्त सोच की ओर एक विवेकशील यात्रा | Awakening the Mind’s Eye: A Reflective Journey Beyond Bias and Illusion"



दिमाग की आंखें खोलना

पूर्वाग्रहों के पर्दे हटाकर सच्चाई की ओर...

(मनोज भट्ट जी की मूल रचना पर आधारित विस्तृत विश्लेषण)

     "मन की आंखें खोल रे भाया..." , यह पुकार आज के भारत की सबसे ज़रूरी चेतावनी है। जब सूचना की बाढ़ में सच्चाई डूब रही हो, और तथाकथित शिक्षित वर्ग भी भ्रम और पूर्वाग्रहों का शिकार हो रहा हो, तब केवल आंखें खोलना पर्याप्त नहीं। हमें दिमाग की आंखें खोलनी होंगी, यानी विवेक, तर्क और आत्मनिरीक्षण के माध्यम से देखना होगा।

सूचना युग में भ्रम की परतें

    भारत आज दुनिया के सबसे बड़े डिजिटल उपभोक्ता देशों में शामिल है। लेकिन यह डिजिटल विस्तार जितना तेज़ है, उतना ही खतरनाक भी, यदि विवेक और मीडिया साक्षरता साथ न हो।

     2025 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की कुल जनसंख्या लगभग 1.46 अरब है, जिनमें से 806 मिलियन लोग इंटरनेट का उपयोग करते हैं। इनमें से 750 मिलियन उपयोगकर्ता मोबाइल इंटरनेट पर निर्भर हैं, और प्रति व्यक्ति औसतन 20 GB डेटा हर महीने उपयोग किया जाता है। 

      सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं की संख्या भी 491 मिलियन तक पहुंच चुकी है। यह दर्शाता है कि भारत एक डिजिटल महासागर बन चुका है, लेकिन क्या हम इस महासागर में दिशा जानते हैं ?

शिक्षित वर्ग और पूर्वाग्रह: अदृश्य बीमारी

      मनोज जी ने जिस "तथाकथित शिक्षित वर्ग" की बात की है, वह आज सबसे अधिक सूचना का उपभोग करता है, लेकिन सबसे कम आत्मनिरीक्षण करता है। यह वर्ग अक्सर अपनी पसंदीदा विचारधारा, चैनल या सोशल मीडिया पेज से ही सच्चाई को परिभाषित करता है।

      एक अध्ययन के अनुसार, भारत में फैली गलत सूचनाओं में से 46% राजनीतिक, 33.6% सामान्य और 16.8% धार्मिक प्रकृति की होती हैं। 

      चिंताजनक बात यह है कि शिक्षित वर्ग भी बिना सत्यापन के सूचनाओं को साझा करने की प्रवृत्ति रखता है, जिससे लोकतंत्र, सामाजिक सौहार्द और जनमत निर्माण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

आत्मनिरीक्षण: सच्चाई की खोज की पहली सीढ़ी

     जब हम अपने विचारों को चुनौती देना शुरू करते हैं, तब ही हम सच्चाई की ओर बढ़ते हैं। आत्मनिरीक्षण का अर्थ है...
  • अपने स्रोतों की समीक्षा करना  
  • अपने पूर्वाग्रहों को पहचानना  
  • हर सूचना को तर्क की कसौटी पर कसना  
यह प्रक्रिया कठिन है, लेकिन यही वह मार्ग है जो हमें भ्रम से बाहर निकालता है।

सोच की स्वतंत्रता और विवेक की जागरूकता

       आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है, सोच की स्वतंत्रता और विवेक की जागरूकता। यह तभी संभव है जब हम हर सूचना को जांचें, परखें और संदर्भ में समझें; बहस और संवाद को खुले मन से स्वीकारें; और मीडिया साक्षरता को जीवनशैली का हिस्सा बनाएं।

     भारत में मीडिया साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए कई पहलें चल रही हैं। 

उदाहरणस्वरूप...
  • FactShala एक पहल है जिसे Internews और Google ने मिलकर शुरू किया है, जो ग्रामीण भारत में मीडिया साक्षरता बढ़ा रही है। 
  • IGNOU ने मीडिया और सूचना साक्षरता पर स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम शुरू किया है। 
  • NCERT–CIET स्कूल स्तर पर मीडिया शिक्षा के लिए संसाधन विकसित कर रहा है। वहीं Digital Saksharta Abhiyan भारत सरकार की योजना, जो ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देती है।  
      इन पहलों से स्पष्ट है कि भारत में मीडिया साक्षरता को लेकर प्रयास हो रहे हैं, लेकिन इनका विस्तार और प्रभाव अभी सीमित है।

वर्तमान उदाहरण

                    भ्रम बनाम सच्चाई
  1. कोविड-19 महामारी के दौरान अफवाहों ने वैक्सीन विरोध, घरेलू उपचारों और सामाजिक तनाव को बढ़ावा दिया।  
  2. राजनीतिक प्रचार में मॉर्फ्ड वीडियो, झूठे बयान और ट्रोलिंग आम हो गई है।  
  3. धार्मिक मुद्दों पर बिना संदर्भ के वायरल संदेशों ने कई बार हिंसा को जन्म दिया।  
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि केवल आंखों से देखना पर्याप्त नहीं, हमें विवेक से देखना होगा

शिक्षण और सुधार की दिशा

     एक शोध में पाया गया कि बिहार के 583 गांवों में 13,500 छात्रों को मीडिया साक्षरता सिखाने के बाद, वे झूठी सूचनाओं को पहचानने में अधिक सक्षम हुए और उनके माता-पिता पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। 

    यह दर्शाता है कि सही शिक्षा से पूर्वाग्रहों को चुनौती दी जा सकती है।

समाधान की दिशा: विवेकशील समाज की ओर

     मनोज जी की बातों को आगे बढ़ाते हुए, हम कुछ ठोस कदम सुझा सकते हैं:

  • मीडिया साक्षरता को स्कूल पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए  
  • सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तथ्य-जांच टूल्स को अनिवार्य किया जाए  
  • संवाद और बहस को प्रोत्साहित किया जाए, जहां विरोध भी सम्मानपूर्वक हो  
  • आत्मचिंतन और ध्यान को जीवनशैली का हिस्सा बनाया जाए  
      अंत में निष्कर्ष यही निकलता है कि 

     "दिमाग की आंखें खोलना" केवल एक रूपक नहीं, बल्कि आज के समय की पुकार है। जब हम अपनी सोच को चुनौती देना शुरू करेंगे, तभी हम सच्चाई की ओर बढ़ेंगे। 

      यह यात्रा कठिन हो सकती है, लेकिन यही वह मार्ग है जो हमें एक विवेकशील, स्वतंत्र और न्यायपूर्ण समाज की ओर ले जाएगा।

     मनोज जी की यह रचना न केवल एक चेतावनी है, बल्कि एक आह्वान भी, कि हम सब मिलकर अपने भीतर की आंखें खोलें और अपने समय की सच्ची तस्वीर देखें।

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पुनर्प्रस्तुति -- गायत्री भट्ट 

Saturday, September 6, 2025

प्रार्थना से कर्म तक: समाज और बच्चों का भविष्य From Prayer to Action: Shaping the Future of Children & Society



प्रार्थना और सपना: एक ईश्वरीय संवाद

       एक शीतकालीन रात्रि में चारों ओर गहरा सन्नाटा,  स्थिरता और मौन का साम्राज्य फैला हुआ था। किन्तु एक व्यक्ति, जो समाज का सामान्य-सा सदस्य था, अपने घर के छोटे से कक्ष में बेचैन होकर करवटें बदल रहा था। नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। उसकी आत्मा भीतर ही भीतर किसी उत्तर की खोज में भटक रही थी। 
   
      वह सोच रहा था कि "आखिर कब उसकी प्रार्थनाएँ पूरी होंगी। क्योंकि वह अपने देश की दिन पर दिन बढ़ती अराजक व्यक्स्था से दुखी था। वह प्रतिदिन ईश्वर से विनती करता कि हे ईश्वर !इस धरती पर एक ऐसा बालक जन्म ले, जो मेरे देश को गौरव प्रदान करे, जो अराजकता, अज्ञान और अन्याय के अंधकार को चीरकर सूर्य की तरह इस देश को विश्व में सर्वोच्च पायदान पर प्रतिष्ठित करे। परंतु अभी तक उसको कहीं भी ऐसा बालक नहीं दिखा जो समाज ओर देश को नया मजबूत धरातल दे सके।"

     धीरे-धीरे उसकी पलकों पर नींद का बोझ उतर आया। उसी पल एक अद्भुत स्वप्न ने उसकी चेतना को अपने वश में कर लिया। स्वप्न में उसने देखा...

      आकाश से एक दिव्य प्रकाश उतर रहा है। वातावरण में मधुर और गंभीर ध्वनि गूंज उठती है। यह किसी साधारण मनुष्य की आवाज़ नहीं थी, बल्कि ईश्वर की वाणी थी। उस वाणी ने उसकी आत्मा को संबोधित किया...

      “हे मानव! तुम प्रतिदिन एक तेजस्वी बालक के लिए प्रार्थना करते हो। पर क्या तुम्हें ज्ञात है कि मैं प्रतिदिन एक ऐसे बालक को तुम्हारे समाज में भेजता हूँ ? वे हर दिन जन्म लेते हैं, उज्ज्वल, मासूम और संभावनाओं से भरे हुए।”

     यह सुनकर वह व्यक्ति चकित हो उठा। उसने विनम्र स्वर में पूछा, “हे प्रभु! यदि ऐसा है तो, वह बालक कहाँ 
है ? क्यों नहीं जगमगाता वह, सूर्य की भाँति ? क्यों हमारे देश और समाज का भविष्य अब भी अंधकार में डूबा हुआ प्रतीत होता है ?” दिव्य वाणी और गंभीर हो उठी...

     “क्योंकि, हे मानव, तुम्हारा ही समाज उस बालक का तेज छीन लेता है। शैशवावस्था में वह भूख और गरीबी से जूझता है। बाल्यकाल में उसे शिक्षा से वंचित कर दिया जाता है। किशोर होते-होते उसे बुरी आदतों और कुरीतियों की दलदल में धकेल दिया जाता है। और जब वह युवावस्था में कदम रखता है, तो अवसरों के अभाव में उसका आत्मविश्वास टूट जाता है। वही बालक, जो ईश्वर का दिया हुआ प्रकाश था, धीरे-धीरे बुझ जाता है।”

      यह कहते ही स्वप्न में दृश्य बदल गया। उस व्यक्ति ने देखा, एक छोटा बालक, नंगे पाँव गलियों में भटक रहा है। कभी भूख से बिलखता, कभी अकेलेपन में आँसू बहाता, तो कभी दूसरों की उपेक्षा सहता हुआ। उसके हाथ में किताब होनी चाहिए थी, पर वहाँ टूटा-फूटा खिलौना था। उसके चेहरे पर मुस्कान होनी चाहिए थी, पर वहाँ थकान और निराशा थी।

      उसी स्वप्न दृश्य में, समाज का प्रतीक भी प्रकट हुआ। लोग आए, कुछ शिक्षक, कुछ नेता, और बहुत-से साधारण नागरिक। वे कह रहे थे, “हम क्या करें ? हमारे पास समय नहीं है। हमने तो स्कूल बना दिए, योजनाएँ चला दीं। यदि बालक कुछ नहीं कर पा रहा तो यह उसकी अपनी नियति है।”

      तभी ईश्वर की वाणी क्रोध और करुणा से गूँज उठी...
“नहीं ! यह केवल उसकी नियति नहीं, यह तुम्हारा सामूहिक अपराध है। यदि तुम्हारा समाज बालक को प्रेम, शिक्षा और नैतिकता का वातावरण नहीं देगा, तो उसका प्रकाश कभी पूर्णता तक नहीं पहुँच पाएगा। हर बालक में ईश्वर का अंश होता है, पर उसे पहचानना और पोषित करना तुम्हारे हाथ में है।”

      स्वप्न में इतना सुनते ही वह व्यक्ति भीतर तक हिल गया। उसके हृदय में आत्मचिंतन की गहन लहर उठी। वह समझ गया कि केवल प्रार्थना करना पर्याप्त नहीं है। ईश्वर से मांगने के साथ-साथ कर्म करना भी आवश्यक है।

      उसने दृढ़ स्वर में कहा, “हे प्रभु! आपके तेजस्वी संदेश ने मेरी आत्मा को झकझोर दिया है। अब मैं केवल प्रार्थना नहीं करूँगा, मैं कर्म करूँगा। मैं समाज को जगाऊँगा, मैं बच्चों को अवसर दूँगा, और हर बालक को उसकी नियति तक पहुँचने में सहायक बनूँगा।”

       जैसे ही उसने यह प्रतिज्ञा की, स्वप्न दृश्य पुनः बदल गया। वही समाज, जो अब तक उदासीन था, धीरे-धीरे रूपांतरित होने लगा। शिक्षक अब केवल पढ़ाने वाले नहीं, बल्कि प्रेरणा देने वाले बने। नेता केवल भाषण देने वाले नहीं, बल्कि सच्चे मार्गदर्शक बने। नागरिक केवल दर्शक नहीं, बल्कि संरक्षक और सहयोगी बने।

     अब स्वप्न में वही बालक पुनः आया। किंतु इस बार उसका चेहरा बदला हुआ था। उसकी आँखों में आत्मविश्वास की चमक थी। उसके हाथ में किताब थी, और उसके आसपास शिक्षक तथा समाज के लोग खड़े थे, जो उसे संबल दे रहे थे। बालक ने मुस्कराते हुए कहा, “अब मुझे डर नहीं लगता। अब मेरे पास शिक्षा है, मेरे पास शिक्षक हैं, और मेरे सपनों को पूरा करने का साहस है।”

       इस दृश्य को देखकर व्यक्ति की आँखों से आँसू बह निकले। उसने अनुभव किया कि सचमुच एक प्रार्थना ने एक आंदोलन को जन्म दे दिया है। एक स्वप्न ने पूरे समाज को बदलने की शक्ति भर दी है।

“और इस प्रकार, एक साधारण मनुष्य की बेचैनी ने पूरे समाज को हिला दिया। एक प्रार्थना ने कर्म का मार्ग दिखाया। और एक ऐसा बालक, जो खोने वाला था, अब देश का भविष्य बन गया। यह वही क्षण था, जब सपना वास्तविकता में बदल गया।”

धीरे-धीरे वह व्यक्ति गहरी नींद में समा गया और पुनः उसी स्वप्न में देखता है कि पूरा समाज, बालक, शिक्षक, और वह स्वयं नायक की भूमिका में एक जगह एकत्र हुए और सभी ने मिलकर समवेत स्वर में उद्घोष किया...

   “हे समस्त मानव ! आओ सब मिल कर प्रार्थना करो, परन्तु साथ ही कर्म भी करो। हर बालक में ईश्वर का तेज छिपा है। उसे पहचानो, उसका पोषण करो, और उसकी उड़ान को दिशा दो।”

     स्वप्न मे इसी संदेश के साथ दिव्य संगीत बज उठा। वातावरण में “ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:” की गूँज फैल गई...और सभी के हृदय में यह संदेश गहरे अंकित हो गया कि समाज का वास्तविक भविष्य उसके बच्चों में है...


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Thursday, September 4, 2025

इमर्जेंसी नम्बर, आपकी असली कमाई क्या है ? Emergency Number, What Truly Defines Your Worth ?



"।                    """  " इमर्जेंसी नम्बर...जीवन की असली पूँजी "
 
       क्या आपकी जिंदगी में कोई ऐसा है जिसे आप संकट की घड़ी में बिना संकोच फोन कर सकते हैं ? और क्या आप खुद किसी के लिए ऐसे हैं ?  

      यह लेख उस असली पूँजी की बात करता है जो न तो बैंक में जमा होती है, न ही सोशल मीडिया पर दिखती है, बल्कि दिलों में बसती है।  

    "इमर्जेंसी नम्बर" केवल एक सुविधा नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन है। आइए आज, इस संवेदनशील विषय पर विचार करें।

       हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ व्यक्ति की सफलता को उसकी संपत्ति, पद, शोहरत और सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स की संख्या से आँका जाता है। लेकिन क्या यही जीवन की असली कमाई है ? क्या इन बाहरी चकाचौंध के पीछे छिपी आत्मिक पूँजी को हम पहचान पा रहे हैं ? 
      इस लेख में हम एक ऐसे मापदंड की बात करेंगे जो न तो बैंक बैलेंस से जुड़ा है, न ही किसी पदवी से, बल्कि उस मानवीय रिश्ते से जुड़ा है जिसे हम "इमर्जेंसी नम्बर" कह सकते हैं।

इमर्जेंसी नम्बर का अर्थ

      यह शब्द सुनते ही हमारे मन में एम्बुलेंस, पुलिस या फायर ब्रिगेड का ख्याल आता है। लेकिन यहाँ इसका आशय उन व्यक्तियों से है जो हमारे जीवन में ऐसे हैं कि जब हम किसी घनघोर संकट में हों, तो वे बिना किसी स्वार्थ के, बिना किसी औपचारिकता के, हमारे लिए तत्पर रहते हैं। ये वे लोग हैं जो हमारे रिश्तेदार नहीं हैं, लेकिन रिश्तों की परिभाषा को नए आयाम देते हैं।

जीवन की असली कमाई

      यदि आपके पास कम से कम एक ऐसा व्यक्ति है जो आपके लिए इमर्जेंसी नम्बर की तरह कार्य करता है, तो निश्चय ही आपने जीवन में कुछ अमूल्य कमाया है। और यदि ऐसे लोग एक से अधिक हैं, तो आप वास्तव में धनवान हैं, संवेदनाओं, विश्वास और मानवीय रिश्तों की दृष्टि से।

     यह कमाई न तो शेयर मार्केट में घटती-बढ़ती है, न ही इसे कोई टैक्स अधिकारी जाँच सकता है। यह कमाई आत्मा की गहराई में होती है, जहाँ विश्वास, सहानुभूति और निस्वार्थता की नींव पर रिश्ते खड़े होते हैं।

     ये तो हो गई अपने लिए वाली बात, अब दूसरा पक्ष भी जानने की कोशिश करते हैं कि हम कितनों के इमर्जेंसी नम्बर हैं ?

     यह प्रश्न और भी अधिक महत्वपूर्ण है। क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति के लिए इमर्जेंसी नम्बर हैं जो आपका रिश्तेदार नहीं है ? क्या कोई आपको संकट में सबसे पहले याद करता है ? यदि हाँ, तो आप समाज के लिए एक अमूल्य संसाधन हैं। आप केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक भरोसे की दीवार हैं जिस पर कोई टूटते समय टिक सकता है।

      यह भूमिका निभाना आसान नहीं है। इसके लिए संवेदनशीलता, समय, धैर्य और निस्वार्थता चाहिए। लेकिन यही वह भूमिका है जो हम सब को जोड़ती है, समाज को जोड़ती है, जो मानवता को जीवित रखती है।

सामाजिक चेतना की आवश्यकता

      आज का समाज, तेजी से आत्मकेंद्रित होता जा रहा है। हम अपने दायरे, अपने परिवार, अपने हितों तक सीमित होते जा रहे हैं। ऐसे में "इमर्जेंसी नम्बर" जैसे रिश्ते विलुप्त होते जा रहे हैं। हमें इस चेतना को पुनर्जीवित करना होगा कि जीवन केवल अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी जीने का नाम है।

       स्कूलों, कॉलेजों और सामाजिक संस्थानों में इस विषय पर संवाद होना चाहिए। बच्चों को सिखाया जाना चाहिए कि दोस्ती केवल मौज-मस्ती नहीं, बल्कि संकट में साथ निभाने की परीक्षा भी है। युवाओं को प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे अपने जीवन में ऐसे संबंध बनाएँ जो समय की कसौटी पर खरे उतरें।

डिजिटल युग में मानवीय स्पर्श

      सोशल मीडिया ने हमें जोड़ने का दावा किया है, लेकिन क्या वास्तव में हम जुड़े हैं ? हजारों फॉलोअर्स होने के बावजूद, जब कोई व्यक्ति मानसिक संकट में होता है, तो उसे समझने वाला कोई नहीं होता। ऐसे में एक इमर्जेंसी नम्बर वाला व्यक्ति ही, किसी मनोचिकित्सक से अधिक प्रभावी हो सकता है

      हमें डिजिटल रिश्तों से आगे बढ़कर वास्तविक, मानवीय रिश्तों की ओर लौटना होगा। यह तभी संभव है जब हम अपने जीवन में ऐसे लोगों को स्थान दें जो हमारे लिए संकट में खड़े हो सकें, और हम उनके लिए।

आत्ममंथन का समय

इस लेख को पढ़ते समय एक बार ठहरिए और सोचिए-- 
  • क्या आपके पास ऐसा कोई व्यक्ति है जो आपके लिए इमर्जेंसी नम्बर है ? 
  • क्या आप किसी के लिए इमर्जेंसी नम्बर हैं ?
  •  क्या आपने ऐसे रिश्ते बनाए हैं जो स्वार्थ से परे हैं ?
  • क्या आप अपने बच्चों को ऐसे रिश्ते बनाने की प्रेरणा दे रहे हैं ?
     यदि इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है, तो आप समाज के लिए एक प्रकाशस्तंभ हैं। यदि नहीं, तो अभी भी समय है, रिश्तों को पुनः परिभाषित करने का, जीवन को नई दृष्टि से देखने का।

     उपरोक्त विचारों को समझते हुए, हमें यह स्वीकार करना होगा कि "इमर्जेंसी नम्बर" केवल एक संज्ञा नहीं, बल्कि एक जीवन दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि जीवन की असली पूँजी वह है जो संकट में साथ देती है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम ऐसे बनें कि कोई हमें संकट में याद करे, और हम बिना किसी संकोच के उसकी सहायता को पहुँचें।

      यदि हम इस चेतना को समाज में फैला सकें, तो हम एक ऐसे समाज की नींव रख सकते हैं जहाँ रिश्ते स्वार्थ से नहीं, संवेदना से बनते हैं। जहाँ व्यक्ति की पहचान उसके पद से नहीं, उसकी उपस्थिति से होती है। और जहाँ हर व्यक्ति किसी न किसी के लिए इमर्जेंसी नम्बर होता है...

        इस लेख की पृष्ठभूमि मेरे बचपन के एक सिद्धांत पर आधारित है कि " आइए एक दूसरे की मदद करें " जिसे आज शाब्दिक विस्तार दिया...


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Tuesday, September 2, 2025

शिक्षा से पहले सभ्यता Civility Before Education



शिक्षित होने से पहले सभ्य होना आवश्यक है
(एक दृष्टिकोण)

      आज का युग ज्ञान-विज्ञान, तकनीक और प्रगति का युग कहा जाता है। हर ओर डिग्रियों की दौड़ है, बच्चों से लेकर युवाओं तक हर कोई केवल इस प्रतिस्पर्धा में उलझा हुआ है कि कौन अधिक अंक लाता है, किसे बेहतर संस्थान से डिग्री मिलती है, कौन ऊँचे वेतन वाली नौकरी पाता है। 

     लेकिन इस आपाधापी में एक महत्वपूर्ण प्रश्न पीछे छूट जाता है कि क्या केवल शिक्षित होना ही पर्याप्त है, या सभ्य होना, उससे कहीं अधिक अनिवार्य है ?

शिक्षा और सभ्यता में अंतर की सूक्ष्म रेखा

     शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन नहीं है। शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, इंसान को इंसान बनाना, उसके भीतर नैतिकता, संवेदनशीलता और मानवता का बीजारोपण करना। लेकिन दुर्भाग्य से आज शिक्षा की परिभाषा केवल अंकतालिका, परीक्षा परिणाम और कैरियर की ऊँचाइयों तक सिमट कर रह गई है।

     जबकि सभ्यता वह गुण है जो शिक्षा से परे जाकर हमें जीवन जीने का तरीका सिखाती है। सभ्य होने का मतलब है, दूसरों के विचारों का सम्मान करना, अपनी सीमाओं को समझना, और समाज के लिए उपयोगी दृष्टिकोण अपनाना।

डिग्रियों के पीछे छिपा खोखलापन

      हम अक्सर ऐसे लोगों से मिलते हैं, जो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों से डिग्रियाँ लेकर ऊँचे पदों पर बैठे हैं। लेकिन उनका व्यवहार कठोर, स्वार्थी और कभी-कभी क्रूर भी होता है। उनके पास ज्ञान का भंडार हो सकता है, लेकिन संवेदनशीलता की कमी उन्हें एक असभ्य नागरिक बना देता है।

      दूसरी ओर, गाँव-गली या सामान्य परिवारों में ऐसे लोग भी मिल जाते हैं, जिनके पास ज्यादा शिक्षा नहीं है, परंतु उनका व्यवहार इतना सौम्य, उनका हृदय इतना विशाल होता है कि वे समाज के लिए मिसाल बन जाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि सभ्यता, शिक्षा से कहीं अधिक गहरी और प्रभावशाली चीज़ है।

सभ्यता कहाँ से आती है?

     सभ्यता किसी पाठ्यपुस्तक में नहीं पढ़ाई जाती। यह घर के संस्कारों, समाज के अनुभवों और आत्मचिंतन की प्रक्रिया से विकसित होती है।
  • घर के संस्कार -- एक माता-पिता जब बच्चों को आदर, संयम और ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हैं, तो वही संस्कार उनके जीवनभर का आधार बनते हैं।
  • जीवन के अनुभव -- कठिनाइयों से जूझना, असफलताओं से सीखना और दूसरों के दुःख को समझना व्यक्ति को संवेदनशील बनाते हैं।
  • आत्मचिंतन -- जो व्यक्ति स्वयं को सुधारने का प्रयास करता है, अपनी गलतियों पर विचार करता है और बेहतर इंसान बनने की कोशिश करता है, वही वास्तव में सभ्य कहलाता है।
सभ्यता के नाम पर मौन -- वरदान या अभिशाप ?
  • आज का समाज अक्सर “सभ्यता” को गलत अर्थों में लेता है। लोग मानते हैं कि चुप रहना, किसी का विरोध न करना, सब कुछ सहन कर लेना ही सभ्य होने का प्रमाण है। लेकिन यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है।
  • जब अन्याय सामने हो, जब समाज-विरोधी नीतियाँ लागू हो रही हों, जब कोई कमजोर शोषित हो रहा हो, उस समय चुप रह जाना सभ्यता नहीं, बल्कि कायरता है।
  • सभ्यता का सही स्वरूप है, दूसरों का सम्मान करते हुए भी अन्याय का विरोध करना। यदि हम केवल मौन दर्शक बनकर रहेंगे, तो हमारी यह तथाकथित सभ्यता समाज को धीरे-धीरे खोखला कर देगी।
सच्ची शिक्षा और सच्ची सभ्यता का संगम
  • सिर्फ शिक्षित होना व्यक्ति को ऊँचा नहीं बनाता, और सिर्फ सभ्य होना भी पर्याप्त नहीं। जब तक दोनों का संगम नहीं होगा, समाज का सही विकास संभव नहीं है।
  • शिक्षा हमें ज्ञान देती है, पर सभ्यता हमें उस ज्ञान का सही उपयोग करना सिखाती है।
  • शिक्षा हमें तर्क करना सिखाती है, पर सभ्यता हमें दूसरों के विचारों का सम्मान करना सिखाती है।
  • शिक्षा हमें आत्मनिर्भर बनाती है, पर सभ्यता हमें सामाजिक जिम्मेदारी का एहसास कराती है।
युवा पीढ़ी के लिए संदेश

      आज की युवा पीढ़ी अक्सर सोचती है कि जीवन का उद्देश्य केवल करियर बनाना और सफलता प्राप्त करना है। लेकिन यदि उस सफलता में दूसरों के लिए संवेदना नहीं है, तो वह अधूरी है। जैसे...
  • एक डॉक्टर तभी महान बन सकता है जब वह मरीज को केवल ‘केस’ न समझकर इंसान समझे।
  • एक शिक्षक तभी आदर्श कहलाएगा जब वह केवल किताबों का ज्ञान न देकर बच्चों में मूल्य आधारित संस्कार भी रोपे।
  • एक नेता तभी सच्चा प्रतिनिधि साबित हो सकता है जब तक कि वह पद की ताकत से नहीं, बल्कि जनता की सेवा से पहचाना ना जाए।
      अब समय आ गया है कि हम शिक्षा और सभ्यता के बीच संतुलन स्थापित करें। इसके लिए सभी को कुछ ठोस प्रयासों को समझने की आवश्यकता हैं -- 

1. परिवार में मूल्य-आधारित शिक्षा -- माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों को केवल पढ़ाई ही नहीं, बल्कि ईमानदारी, करुणा और सहिष्णुता का पाठ भी पढ़ाएँ।

2. शैक्षणिक संस्थानों में चरित्र-निर्माण -- विद्यालय और महाविद्यालयों को केवल अंक-प्रतिस्पर्धा से हटकर नैतिक शिक्षा पर भी ध्यान देना होगा।

3. समाज में सक्रिय नागरिकता -- हर नागरिक को यह समझना होगा कि उसकी चुप्पी अन्याय को और बढ़ावा देती है। इसलिए जहाँ भी गलत हो, वहाँ आवाज़ उठाना ही सभ्यता है।

4. आत्मचिंतन की आदत -- हर व्यक्ति को समय-समय पर स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिए कि क्या वह सच में सभ्य है, या केवल औपचारिक शिक्षा से भ्रमित है।

     अंत में उपरोक्त तथ्य से यह निष्कर्ष यह निकलता सभ्यता और शिक्षा, दोनों ही आवश्यक हैं। परंतु यदि हमें प्राथमिकता तय करनी पड़े, तो सभ्यता पहले और शिक्षा बाद में होनी चाहिए। 

      " सभ्य व्यक्ति बिना डिग्री के भी समाज में सम्मान पाता है, लेकिन असभ्य व्यक्ति, चाहे जितना शिक्षित हो, अंततः तिरस्कार का पात्र बनता है।"

      आज के दौर में हमें यह आत्मचिंतन करना होगा कि हम केवल डिग्रियों के पीछे भाग रहे हैं या सच में इंसान बनने की ओर अग्रसर हैं। 
 
      यदि शिक्षा और सभ्यता एक साथ खड़ी हो गईं, तो न केवल व्यक्ति, बल्कि पूरा समाज और देश एक नई दिशा की ओर बढ़ेगा, जहाँ ज्ञान के साथ संवेदनशीलता, और प्रगति के साथ मानवता भी होगी...

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Saturday, August 30, 2025

जो दिखता है वही बिकता है , लेकिन टिकने के लिए क्या चाहिए..? | What You Show is What Sells , But How to Sustain It..?

      बचपन से ही हम सुनते आए हैं , “जो दिखता है, वही बिकता है।” यह कथन आज के समय में एकदम सटीक बैठता है। सोशल मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और बाज़ारवाद के इस युग में यदि आप स्वयं को प्रदर्शित नहीं करते, तो मानो आप अस्तित्व में ही नहीं हैं। लेकिन यहाँ एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या केवल दिखने भर से ही कोई व्यक्ति, वस्तु या विचार दीर्घकालिक स्तर पर स्थापित हो पाएगा ?

     तो आईए एक सिद्धांत पर विचार करें...

दिखना ज़रूरी है, क्योंकि यही पहचान है

      ये कदाचित सच है कि आज के दौर में यदि कोई व्यक्ति अंतर्मुखी रहकर, केवल अपनी विशेषताओं के साथ, भीतर की गहराइयों में खोया रहता है, तो उसकी प्रतिभा दूसरों तक नहीं पहुँच पाती। वह चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, अगर वह सामने नहीं आएगा, तो दुनिया उसे पहचान ही नहीं पाएगी। यही कारण है कि आज हर किसी के लिए अपना एक उचित मंच या प्लेटफॉर्म बनाना अनिवार्य हो गया है, चाहे वह कोई वस्तु हो,लेखन हो, कला हो, संगीत हो या कोई दर्शन। आज अपने आप को समाज के सामने आगे बढ़कर प्रभावी रूप में प्रस्तुत करना, एक स्वाभाविक सी मजबूरी बन गई है...

लेकिन केवल दिखना काफी नहीं

      “दिखना और बिकना ” तो केवल पहला कदम है। असली सवाल यह है कि आप जो दिखा रहे हैं, वह कितना सच्चा है ? यदि आपका प्रदर्शन केवल आडंबर है, केवल दूसरों को प्रभावित करने के लिए गढ़ा गया है, तो वह टिकेगा नहीं। क्योंकि झूठ और खोखलापन, लंबे समय तक किसी को बांधे नहीं रख सकता। इसलिए इस दिखने के अपने अंदर कुछ विशेष तत्व (गुण) की आवश्यकता होती है

टिकना ही महत्वपूर्ण है 

     यदि आप चाहते हैं कि आपकी पहचान लंबे समय तक कायम रहे, तो केवल दिखना ही नहीं बल्कि "सत्य और मूल्य आधारित जीवन" जीना भी आवश्यक है। तभी आप दिखेंगे, बिकेंगे और टिकेंगे भी...

      वर्तमान दौर की चर्चित कहावत "जो दिखता है वह बिकता है" एक क्षणिक सिद्धांत है। ध्यान रहे कि आपने, अपने आप को समाज के सामने जिस तरह से प्रस्तुत किया है, उस पर भविष्य में टिके रहने के लिए, एक सिद्धांत अपनी जिंदगी में आत्मसात करना होगा। आईए पहले समझते हैं कि दिखना, बिकना और टिकना क्या है..?
  • दिखना - अपनी प्रतिभा और विचारों को सही मंच पर प्रस्तुत करना।
  • बिकना - समाज में स्वीकार्यता और लोकप्रियता पाना।
  • टिकना - दीर्घकाल तक वही स्थान बनाए रखना, जो आपकी सच्चाई और जीवन मूल्यों पर आधारित हो।
     यदि उपरोक्त तथ्यों पर ध्यान देकर यदि टिकने वाली बात पर अमल किया जाए और उसे एक सिद्धांत के रूप मे अपनाया जाए, तो निश्चय ही यह युवा पीढ़ी के लिए भविष्य में सफलता का एक मूलमंत्र साबित होगा। चूंकि आज जीवन के हर क्षेत्र में "गला काट प्रतियोगिता" का दौर है, इसलिए अपने आप को वर्तमान से लेकर भविष्य तक स्थापित करने के लिए टिकने वाले सिद्धांत को अपनाना ही होगा।

     पुनः याद रखिए, जो दिखता है वह बिकता है, पर जो सच्चाई और सिद्धांतों के साथ दिखता है, वही टिकता है।
  •      इसलिए हमें यह समझना होगा कि “दिखना” केवल बाहरी प्रदर्शन भर न हो, बल्कि आपके व्यक्तित्व का वास्तविक परिचय बने। केवल अपनी छवि गढ़ने की होड़ में न पड़ें, बल्कि अपने भीतर वह गुण और मूल्य भी विकसित करें जो आपको टिकाए रखें।
  •      इसलिए ज़रूरी है कि आप अपने व्यक्तित्व और विचारों को इस तरह गढ़ें कि वे अंदर से बाहर तक एकरूप हों। आपका मंच केवल दिखावे का साधन न हो, बल्कि आपके भीतर की सच्ची प्रतिभा का दर्पण बने।
  •      इसलिए यह भी आवश्यक है कि आपके दिखावे की चमक के पीछे चरित्र की दृढ़ता और मूल्यों की स्थिरता मौजूद हो।
    "यही मुख्य कारक होगा जब आपका आधार सशक्त होगा, आपकी सोच गहरी होगी और आपके जीवन-दर्शन में दम होगा, तब आप केवल दिखेंगे ही नहीं, बल्कि बिकेंगे भी और सबसे बढ़कर, टिकेंगे भी..."

📖 यह लेख “रिश्तों का ताना-बाना” ब्लॉग पर प्रकाशित हुआ है। परिवार, समाज और मन के रिश्तों की बातों के लिए पढ़ते रहें: https://manojbhatt63.blogspot.com पढ़ने के लिए धन्यवाद...🙏

Thursday, August 28, 2025

"विकल्पों की भीड़ में खोती है सफलता: एकाग्रता ही है असली शक्ति"



"जहाँ विकल्पों की भीड़ है, वहाँ भ्रम है। जहाँ एक ही राह है, वहाँ संकल्प है। और संकल्प ही सफलता की सीढ़ी है।"

      आज के समय में जब हर दिशा में विकल्पों की भरमार कैरियर, रिश्ते, विचारधारा और जीवनशैली आदि, तब यह कहना कि “विकल्प सफलता में बाधा बनते हैं” एक साहसिक विचार लगता है। परंतु यदि हम गहराई से देखें, तो पाएंगे कि विकल्पों की अधिकता, अक्सर निर्णयहीनता, अस्थिरता और भ्रम को जन्म देती है। और यही वह बिंदु है जहाँ हमारी सच्ची सफलता की राह अक्सर धुंधली हो जाती है।

विकल्प: वरदान या भ्रम का जाल ?

     विकल्प होना एक स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है। लेकिन जब विकल्प इतने अधिक हो जाएं कि व्यक्ति अपने लक्ष्य से भटक जाए, तो यही स्वतंत्रता एक बोझ बन जाती है। जैसे...
  • एक छात्र जो दस कैरियर विकल्पों के बीच उलझा है, वह शायद किसी एक में उत्कृष्टता नहीं पा सकेगा।  
  • एक लेखक जो हर शैली में लिखना चाहता है, वह शायद किसी एक शैली में गहराई नहीं ला पाएगा।  
अतः विकल्पों की अधिकता हमें सतही बनाती है, गहराई नहीं देती।

सीमित विकल्पों में छिपी होती है संकल्प की शक्ति

     जब विकल्प सीमित होते हैं, तो व्यक्ति को अपने भीतर झांकना पड़ता है। उसे अपने संसाधनों, क्षमताओं और धैर्य का पूरा उपयोग करना होता है। जैसे...
  • एक पर्वतारोही जो केवल एक मार्ग से चोटी तक पहुंच सकता है, वह उस मार्ग को पूरी निष्ठा से अपनाता है।  
  • एक किसान जिसके पास सीमित साधन हैं, वह अपनी मेहनत और अनुभव से ही फसल को संवारता है।  
अतः सीमाएं, व्यक्ति को मजबूर नहीं करतीं, बल्कि उसे मजबूत बनाती हैं।

इतिहास के आईने में: विकल्पहीनता से उपजी महानता

     इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जहाँ विकल्पों की कमी ने महानता को जन्म दिया। जैसे...
  • भगत सिंह के पास स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के अलावा कोई विकल्प नहीं था।  
  • हेलेन केलर ने अपनी शारीरिक सीमाओं को ही अपनी प्रेरणा बना लिया।  
  • डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सीमित संसाधनों के बावजूद विज्ञान और नेतृत्व में ऊँचाइयाँ छू लीं।  
अतः इन सभी ने विकल्पों की कमी को अपनी शक्ति बना लिया।

विकल्पों की भीड़ में खो जाता है आत्मबल

     जब व्यक्ति के पास बहुत सारे विकल्प होते हैं, तो वह बार-बार सोचता है, “क्या मैं सही कर रहा हूँ ?”  
  • यह सोच आत्म-संदेह को जन्म देती है।  
  • आत्म-संदेह निर्णय को कमजोर करता है।  
  • कमजोर निर्णय सफलता को दूर कर देता है।  
अतः सफलता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है, निर्णयहीनता

विकल्पों से परे: एकाग्रता की शक्ति

     वह व्यक्ति जो विकल्पों को छोड़कर केवल एक लक्ष्य पर केंद्रित होता है, वह अपने भीतर की ऊर्जा को एक दिशा में प्रवाहित करता है।  
  • जैसे सूर्य की किरणें जब लेंस से एक बिंदु पर केंद्रित होती हैं, तो आग पैदा होती है।  
  • वैसे ही मन की एकाग्रता सफलता की चिंगारी को जन्म देती है।  
अतः एकाग्रता विकल्पों से नहीं, विकल्पों के त्याग से आती है।

आधुनिक जीवन में विकल्पों की चुनौती

     आज के डिजिटल युग में:  
  • हर ऐप में दर्जनों फीचर हैं।  
  • हर वेबसाइट पर सैकड़ों राय हैं।  
  • हर सोशल मीडिया पोस्ट एक नया विकल्प प्रस्तुत करता है।  
इस विकल्प-प्रधान युग में स्थिरता और स्पष्टता एक दुर्लभ गुण बन गए हैं।  

अतः जो व्यक्ति विकल्पों के शोर में भी अपने लक्ष्य की आवाज़ सुन सके, वही सच्चा विजेता है।

विकल्पहीनता नहीं, विकल्पों का त्याग ही सफलता का मूल

      यह कहना गलत होगा कि विकल्प होना बुरा है।  
असल बात यह है कि सफलता उन्हीं को मिलती है जो विकल्पों के बीच से अपने लक्ष्य को चुनते हैं और बाकी सबको त्याग देते हैं।  
  • यह त्याग ही उन्हें एकाग्रता देता है।  
  • यह एकाग्रता ही उन्हें उत्कृष्टता तक पहुंचाती है।  
त्याग ही तप है, और तप ही सफलता का मार्ग।विकल्पों से नहीं, संकल्प से बनती है ऊँचाई...


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